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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९८

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स्थ्यंकुश (उतराई) ४ ८१ जैसे मृशा चरल जंगल में, ना काहू सा बैर करो। बंसी के तान लगी भवन , व्याघा बाइम ठों प्रान हरो ।।२। जैसे फतगहा परे देष में, नैना कास प्राम हो। नासा कारन भंवर माल भयो, पांचवे रसबस पांच सो ।३है तीरथ जाक पहन , मौनी रे के ध्यान घरो। शीव नरायन ई सभ ठा, जब लण सन्न नएँ हाथ को ।।४ा। पांचो रसव यंद्रियों के स्वाद के कारण । चेतावनी (९) सू सुनु रे मन कहुल सोर। चेत करg घर जहां तोर है|टेक। मोह भया भ्रभ जल भोर। है भयावभ रहै न थोर ॥ लहरि झकोरे ले दूसरि पास ॥ काल करम कर निकटबर 1१३ आशु देखि पंथ धरु सबेर। का भुलि ऋलि जग करु अधर ॥ सांझ सकें जब घेरु अंधर । तब कसे जइब उतरि पार है।२८। फिर पछतइव समै जात। चलए आापन घर मानहु बात । देश अपना अपन जग। जहां बसहि सब संत लोग ५३है। अपन अपन घर करत बास' कह न काहुक करत आास ।। सीव नरायन सब्द बिब चारी। अनंत सखिन संग रद्द धमारी (४।। ले . . . .आस =दूसरों के कथन पत्र पर विश्वास कर चलने से । संत संत सवहें , उद्योग भोग सब जीति ।। आदग अद अमें अधर, पुरम पदारथ प्रीति १११ चलिस भरि करि चालि अरि, तत् तौलु करु सेर। रह पूरन एक मनछाईं कर सब फेर ५२३