उनके शिष्य रज्जब जी थे । रज्जब जी ने न केवल उनकी साखियों को
ही इस प्रकार क्रमबद्ध किया, अपितु उन्होंने उनके पक्षों के भी भिन्न
भिन्न शीर्षक लगा दिये और उनकी सारी रचनाओं के संग्रह को
अंगबंधू’ के नाम से तैयार कर दिया। अंगों को चर्चा ‘आदिग्रंथ' में भी
नहीं है । दादूदयाल की साखियों केवल ३७ अंगों में ही विभाजित हैं।
जहाँ रज्जब जी की साखियों के १९२ अंग दीख पड़ते हैं । पीछे
के संतों के सवैये, झूलने,अरिल्ल एवं अन्य कई रचनाएँ भी अंगों
विभाजित पायी जाती है ।
संतों ने जिस एक तीसरे ढंग की रचनाओं को अधिक अपनाया
है, वे दोहों-चौपाइयों में लिखी पायी जाती हैं और वे वर्णनात्मक हैं ।
दोहों-चौपाइयों का एक साथ किया गया इस प्रकार का प्रयोग बहुत
पहले नहीं दीख पड़ता किंतु जिस प्रकार कबीर साहब ने अपनी ‘रमैनी'
में कतिपय चौपाइयों के अनंतर दोहे का क्रम बाँवा है । उस प्रकार
का प्रयोग स्वयंभू कवि की अपभ्रंश 'रामायण' में भी किया गया मिलता
है जो सं० ८०० के लगभग रची गई थी और जिसमें किसी छंद की
पंक्तियाँ ‘धत्ता' छंद के साथ प्रायः वैसे ही क्रम में पायी जाती हैं ।
‘धत्ता' छंद का प्रयोग वहाँ दोहे के स्थान पर किया गया जान पड़ता
है, जहाँ दूसरे छंद की पंक्तियाँ बीच-बीच में चौपाइयों का काम
देती हैं । किसी वस्तु वा घटना का किसी एक छंद द्वारा वर्णन करते
समय बीच-बीच में एक अन्य छंद के प्रयोग द्वारा विश्राम करते चलना
दोनों की विशेषता है । चौपाई छंद का प्रयोग गुरु गोरखनाथ की
समझी जाने वाली कृति'प्राण संकली' में भी पाया जाता है , किंतु उसमें
दोहों का अभाव है । कबीर साहब की रमैनी में ही दोहे और चौपाइयों
का उक्त क्रम, सर्वप्रथम दीख पड़ता है । यह रचना अपनी वर्णन-
शैली की दृष्टि से 'प्राणसंकली'से बहुत भिन्न नही कहीं जा सकती ।
यह रंचनाशैली प्रबंध काव्यों के लिए अधिक उपयुक्त जान पड़ती है ।
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संत-काव्य