पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०१

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४ संतकाज्य कम नहीं 1 इन्होंने विविध छंदों के सफल प्रयोग किये है, और इनकी वनशैली सर्वत्र सरल व सुबोध है । विचित्र संसार (१) जग के कर्म बहुत कठिनाई, तातें भरमि भरमि जैहड़ई टेक।। शानबंत गशान होते है, बूढ़ करत लरिकाई । परमारथ तजि स्वारों सेवहूंयह धों कौनि बड़ाई ॥१। वेद वेदान्त को अर्थ बिचारहबहुविधि ढंचा उपाई । माय मोह ग्रसिल नि िवासरकौन बड़ो सुखदाई २॥ लेह बिसाहि कांच को सौदा, सोना नाम वाई । अमृत तजि बिंघ चयन लारे, यह थों कनि मिठाई ।३!। गुरु परताप सां को संगति, करडू न काहे भाई । अंत काल जब काल गरसिहै, कौन क चतुराई ४? मानुष जनम बहुरिनहि पह, बादि चला दिन जाई । भीखा को मन कपट कुचाली, धरन व मुराई ।५। (१) त्रेहडाई ठगे जाते हैं। हूँच उपाई -प्रपंच रचकर है। बिसाहि=बसाह, सोल : चवन पीने । बादि =यर्थ है धरम टेक । दुराग्रही मन (२) मन तोहि कहत फल सठ हारे । ऊपर और अंतर कछ, , नहि बिस्वास तिहारे 1टेका। आदिह एक अंत पुनि एन्है, मद्ध बहूँ एक बिचारे । लौज लबज एहबर मोहबर करि, करम हृत करि डरे १। बिषयात परपंच अपरबल, पाप पुश्न परचारे । कम औोध मद लोभ मोह कब, चोर चहत उजियारे भ।२है। कपटी कुटिल कुमिति बिभिचारी, हो वाको अधिकारे । महा निलज कथू लाज न तोको, दिन दिन प्रति मोहि जारे 1३