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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०७

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४४ संतकाम प्रीतिवंत हरिपद अनुरागी, भयो अजाच फेरि कांडू न जांचो 1३॥ सतगुर रयान बेदांत सत्ता जोइ, भोखा खोलि लिखा सोइ बची है। रूप =बाहर से देखने पर अंतर गति ==अंतर्गत, भीतर से है अज्ञाच=संतुष्ट। बांबी =पढ़ लिया, सम लिया । पुरुष पुरान आदि दूसरो न सया जादि, बोले सत्त सब्द जमें त्रिगुन पसार है । बीज बढ़थो है तुमर चर अचर बिच'र, तामे मानुष सचेत ने चेनन अधिकार है । सतगुरु मत पाय नि रूप ध्यान लाय, जनम सुफल सांच ताको अवतार है । गगन गबन कर अनहद नाजु भर, सुग्दर सरूप भीखा नूर उजियार है ।१। जाके ब्रह्य दृष्टि प्रैल तनमन प्रश्न सुलो, धन्य सोई संत जाके नाम की उपासना में ज्ञानिन में शान बोई अनुभव फल जोई, तरे लोक लाज जामें का जाप्त साँसना ! प्रेम पंथ परा दियो उर में घर कियो, मन निरगुन पद छठे जग बासना, जोगको जुगति पाय सुरत निरति लाय, नाद fबंद सस भीखा लायो दृढ़ आसना ५२५ भूलो ब्रह्य द्वार काम क्रोध अहंकार महि; रहत अचेत नर मन माया पागो है । अलख अलेख रूप धातमा है भख घरे कस न पुलकि जीव ताही संग लागो है ।