पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संध्ययुर (उस्तरा हैं) ४है. है भिख्छा अनर्भध अन्न ले अतम भोग बिचार !! रह सो रहीत अकासक्त् बरजित जानि अहार t४है। संत रमि में गि रहेसो जम पबे से ॥ भोला गुरु परताप दें, ताऊँव कपट ने 11५ जोग जुक्ति अभ्यास करि, सह सब्द समाय है। भीक्षा गुरु परतापते, लिम अातम बरसाय १६। जाप जपे जो प्रति सों बह विवि रुचि उपजाय 1। स समय औो प्राप्त लशु त व पदारथ था ' ३३ ७है। भोखा केवल एक है, क२लम भो अनंत । एई मातम सकल , यह गति जानह संत 1५८है । जोह ज्वला जॉकी, फंटल रह्यों सब अंग है। तनि अं में प्राप्त है, मन पवन के संग le। सउद नम गुरु ए है, करतवें करम अधर में देह अधम नहीं, जीव बहु नह चीन १५१०। कोटि फला जो करि मर, बिशु गुरु लह न भेद | अंत कोई नहि पावई, है जो क्षारों वेद ३११!! काम को करता जोच है, अवर न हूज' कोइ !i भी हरि चं जो , अंत भोगता हैइ (१२)। राम को नाम अनंत है, अंतन पार्षद को 1 भीखा जस लघुबुद्धि है, ना तवन सुख होय ५१३५ एक संप्रदा सबब , एक द्व/र सुख संच । इक आतम सब भेष मों, दुजो जग परपंच ।।१४। तूस -=ब । आा है =हुल ' पवा =पदस्थान है अधर आकाश, शून्य स्थान । अबर को आधार बा आश्रय के लिए ' भंव . भद, प्राध्यमिक रहस्य है जोली ज्वाला ज्वलंत उद्योति है चीन 2चन्हत, पहनता । कला =प्रयत्न 4 भवतr के मुता, नोमपेने