पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५० ७ संतकब्य वाला । तवन -तितमा, हैसा । संप्रबा =संप्रदाय, मत । संच sse समुदाय, हेरी । भेदनों -रूपों के अंतर्गत है। सहजो बाई सह जो बाई ने अपने ग्रंथ सह प्रकाश के अंतर्गत जो आत्मपरिचय दिया है उससे केवल इतना ही पता चलता है कि इनका भी जन्म अपन गुरु चरणदास की भांति, सर (वैश्य) कुल में हुआ था और ये किसी हरिप्रसाद की पुत्री थीं । उक्त पुस्तक में यह भी लिखा मिलता है कि सं० १८०० के फाल्गुन मास (शुक्ल पक्ष ) की अष्टमी तिथि को, बुधवार के दिन , इन्होंने उसकी रचना आरंभ की थी तथा दिल्ली नगर के प्रोछितपुर कदाचित् परीक्षितपुर नामक किसी भाग) में उसकी समाप्ति हुई थी । इनके विषय में यह भी प्रसिद्ध है कि ये अपने जीवन भर क्वारी व हचारिणी रहीं और अपने गुरु के निकट रह कर उनके सत्संग से सवा लाभ उठाती रहीं । इनका ‘सह प्रकाश' ग्रंथ ‘बेलवेडियर प्रेसद्वारा प्रकाशित हो चुका है। इसमें इनको प्रगाढ़ गुरु भक्षित, सं सार की ओर से पूर्ण विरक्ति तथा साध, मानव जोवन, प्रेमनिर्गुणसगुण भेद, नाम स्मरण जैसे विषयों पर व्यक्त किये गए इनके विचारों का अच्छा परिचय मिल जाता है । इसमें दोहेचोपाई व कुंडलियां छंदों की संख्या अधिक हैं । इनकी वर्णन शैली में कोई विशेषता नहीं दीखती। हां, इनके सगुण रूप बर्लन में सगुणोपासक कृष्ण भक्तों की शैली अवश्य लक्षित होती है । प्रद उपद्श (१) बाबा काया नगर बसाव । ज्ञाभ दृष्टि सुंघट में देखो, सुरति निरति ल लावौ ।१५।