पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५२१

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५ ० ६ संत-काव्य ले सो नहीं फकोरभार काहे सिर धरिये । आचतम भाड़ा देय, राम का सुमिरण करिये । जगत छॉर्डि ऐसी करीज्यां परस्या पूरा पोर । इतना चाहिये साधु कों, शबदन भोजन नीर ३। साथु सुमिरे रामकास माया से नहीं। छाब भोजन हेतु बसंनहि दुनिया मांही । : पर इ ज्छा की , पाय बरते निज देहा । अण्णा निज घर डुि, करै नह पर घर नेहा ॥ आशा बांध्या न फिर, बिच सहज सुभाय । रम चरण ऐसा जतो, राम कृपा से पाब ५४। अ केंदघन सुखराशि, चिदानंद कहिये स्वामी । निरालंब निरलेपआकल हरि अंतरयामी । बार पर मधि नाहछून बिधि करिये सेवा । नह निराकार नाकार, अजन्मा अवगत देवा । राम चरण वन्दम करेअल्ह अडिस नूर। सूक्ष्म स्पून खाली नहीं, रहो सकल भरपूर 1५।" राम राम पुत्र गाय, न ह्य का पद रु पयो । जैसे सरिता मीर घाथ, धुरि समंद ससायो । जल की उत्पति लोण, उलटि अपणो पद पाथो । पोलो महि गत्या, माह का बरसायो । पणी ज्यों जलकेरा बु धब्बा, जल से न्यारा नाह । राम चरण दरियाब की, लहरयां दरियां सहि १६। मल्टि: =मापा । ग्रेही =ह, धर। जरखां आत्मस करने की साधना ' छक्न=पहनने के लिए वस्त्रादि । ज्य. . . .पोर==जिसे आत्मानुभूति हो गईजिसने पूर्ण तत्व क्षा ग्रनुभव कर लिया । अवगत'अविगतअज्ञात खाली-=पोपला, भीतर शूयवस् । दरियाव =. सम, जलराशि । G