पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५३९

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५२६ संत-काल्प दू मस्त जो हाल में तिसका नाम फकीर। फाका जिकिर किनात थे तो बात जगीर ॥ १२। फ़ाक=उपवास। किनरत-कनायतसंतोष से कुसव ==कुशवः उदार। इबादतनाराधना। जनाजte=रथी । गद भिखारी। नसा= आनंद को अस्स३१ समर्थन उस । (१३) संत न चढ़ मुक्ति को नहीं पदारथ चार है। नहीं पदास्थ चार मुक्ति संतन की चेरी। द्धि सिद्धि पर भू स्वर्ग की आस न हो । तोथ कैरह न बर्त नहीं कछु मन में इच्छा। पुस्य तेज प्रताप सत्र को लगे श्रच्छिा है। ना चाहे बे न आवागमन निवारा । सात स्वर्ग अपवर्ग तुच्छ सम ताहि बिचारा ॥ पलटू साह हरि पति ऐसई भतत हमार। संत न चाहें मुक्ति को नहीं पक्षरथ थार 1१३। बतः- श्री । व=हैं । (१४) टेढ़ सके मुंह अपना ना टेढ़ा नfह । ऐना बढ़ा नांह टेढ़ को टेढ़ सूचै। जो कोड देख सकें ताहि को समैिं बू ॥ जाकों कछु नfह भेद भाबना अपनी द: । जाको जैसी प्रोलि सुरति सो तैसो परस ॥ दुर्जन को दुर्बुद्धि पाप से अपने जाते। सज्जन क है सुमति सुमति से अपने तरते है? पलटू ऐना संल हैं सब देखे तेहि महैि । टढ़ लोझ मुंह अपना ऐमा टेढ़ानहि ।१४।