पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५४७

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५३४ संसकाrब्ध । खसम रिझतब तो श्रोटको छोड़ि दे, भर्म संसार को दूरि फेंके हैं। लज कि की क ई ख म से काम है, नाथु भरि पेट फिर कोन है । ? दास पलटू कहें तुहों सहागली, सोव सुख सेज तू व सम एके 11६। इबर से उबर जायगा किधर को, जिधर तू जाय में उबर आ । कोस हजार लू जाय चलि लेक में, ज्ञान को कुटी में उन्हें छवां ॥ सुमति जंजोर की गले में डारिक, जहां टू जाय में होंच ला । दास पलटू कहें माहिर हाँ इौर में, जहां मैदान में पंकरि ' पावई ।७३क सुन्य के सिखर पर अजब मंडप बना, मन औ पवन मिलि कई घासा एक से एक अनेक जंगल जहां भंवर गुजर इक अरे स्बासा ॥ माम सागर भरा झिलमिलि मोती , चुने को प्रेम रस हंस खास । दास पलटू पर जब दिव दृष्टि से, ज* सब ५र्भ तब है भास है। । । आरिल जप तप ज्ञान वैराग जोग मा मानिहाँ । सरण नरक बैकुंठ तुच्छ सब जानिहीं ।