पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५६१

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५४८ संतकान देने अथवा उसके विषय को बार-बार दुहने में भी उन्हें एक अपूर्व आनंद मिलता है । उनको भाषा सीधी-सादी है, किंतु कुछ शब्दों को उन्होंने कहींकहीं विकृत कर दिया है और दोनियम के अक्षरशः पालम की भी चेष्टा नहीं की है । पद मतसर (१) गुरू बिना कभी न उतरे पार । नाम बिन कभी न होय उधार 4 १। संग बिन कभी न पाब सार। प्रेम बिन कभी न पावे यार २॥ जुक्ति बिन चढ़े न गगन मंहार। बंथा बिन खुले में वन किवाड़ ५३। सुरत बिभ होय न शब्द सम्हार ने निरत बिन होय न धुन अधार ।४। गुरू से करना पहिले प्यार के नाम रस पीना मन को मार 1५? काल घर जान तजा संसार से खुल घर अई अन्म सुधार ।।६? संत गति पाई गुरू को लार। शब्ध संग मिलो मिला पद जार ५७। कहा राधास्वामी आग म विव चार । सु ने और मावे करे निरवार । चाल-=राधास्वामी दयाल । लार =संग में रहकर । गुरु भक्ति (२) प्रेमी सुनो प्रेम की बात ।।टेक। सेवा को प्रेम से गुरु को। और बदर्शन पर बल बन जात क१। जत काम को कसिन था। श्र स गुरुमुख को गुरु का गात 1३ बाते पोते चलते फिरते । सोवत जागत विसरि न जात 1४। खटकत रहे भाल ज्यों हियरे से बर्फ के ज्यों दरद समात ५। ऐसी लगन गुरू संग जाको ( वह गुरुमुख परमारथ पात ६। जब लग गुरु प्यारे नहि ऐसे तब लग हिरसी जाना जात ७!। नमूख फिर किसी का नही । कहो क्योंकर परमारथ पाल !!!