पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५६७

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५५४ संत-काव्य उज्जल निर्मल हुई सुरत जब । प्रौढ़त मन अब अति हरखाई ॥५॥ चला गगन पर मिला शब्द सँग। चढ़त चढ़त त्रिकुटी लिंग पाई ॥६॥ सुन्न शिखर चढ़ हंस रूप धर । महासुन्न छवि औरहि पाई ॥७॥ भंवर गुफा पर सोहं सोहं। सत लोक सत सोहं गाई ॥८॥ अलख अगम को देखत देखत । राधास्वामी चरनन जाय समाई ॥६॥ खानी उत्पत्तिस्थान, योनि । पंचम =षष्टम -पद जो उसके आगे हैं।रेहकपड़ा साफ़ करन की मिट्री । औरहि-अनिर्वचनीय । साखी बैठक स्वामी अदभुती राधा निरख निहार । और न कोई लख सके शोभा अगम अपार ॥१॥ गुप्त रूप जहां धारिया राधास्वामी नाम । बिना मेहर नहि पावई जहाँ कोई बिसराम ॥२॥ मोटे बचन जगत के, गुरु भक्ति से काट । झीले बन्धन चित्त के, कटे नाम परताप ॥३॥ मोटे जब लग जायें महि झीने कैसे जाय । ताते सब को चाहिये नित गुरु भक्ति कमाय ॥४॥ सन्त दिवाली नित करें, सत्तलोक के माहि । और मते सब काल के, योंही धूल उड़ाहि ॥५॥ सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया न जाय ।। देह रूप मिथ्या तजा, सत्तरूप हो जाय ॥६॥ स्वामी प्रादि शब्द । राधा ...आदि सुरत । मते = दूसरे पंथ संप्रदायादि । अचरजी अद्भुत । संत सालिगराम रायबहादुर (हुजूर महाराज साहेब) राय सालिगराम उपनाम 'हुज़र महाराज साहेब' राधास्वामी .. सत्संग के द्वितीय गुरू थे और उनका जन्म भी, आगरा नगर के ही पीपलमंडी