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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५६८

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ग्रानिक युग मुहल्ले में सं० १८८५ की फागुन सुदि ८ को, एक प्रतिष्ठित माथुर कायस्थ कुल में हुआ था। उन्होंने पहले फ़ारसी में शिक्षा पायी श्री और फिर अंमें जी में उस समय के सीनियर कक्षा तक पढ़े थे जो कदाचित्र आजकल की बी. ए श्रेणी के बराबर था । वे सं० १९०४ में डाक विभाग की नौकरी में भर्ती हुए और अंत में में ० १२९३८ में पोस्टमास्टर जन रल को तक पद तक पहुंच करअलग दुए । उनकी योग्यता तथा परिश्रम के ही कारण उन्हें रायबहादुर की पदवी मिली थी । उन्हें सित्रों की पुस्तक पंजग्रंथी' के कुछ अंशों का वास्तविक अभिप्राय जानने के लिए संयोगवश संत शिवदयाल जी के संपर्क में आना पड़ा जिनसे वे बहुत प्रभावित हुए । वे उनके व्यक्तित्व द्वारा यहां तक आकृष्ट हो गए कि उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया और क्रमश: उनकी सेवाटहल तक करने लगे । उन्होंने अपने गुरु की मृषा करते समय उनके आराम के लिए सभी प्रकार के काम किये और अपने धनादि को भो उन्हें समर्पित कर दिया। अपने गुरु का देहांत हो जाने पर हुजूर महारा साहेबउनकी जगह सत्संग कराने लगे और सत्संग के अनुया- यियों की एक अच्छी संख्या बढ़ाने, उसे संगठित करने तथा कई रचनाओं को प्रस्तुत करने के अनंतर उन्होंने सं० १९५५ में अपना चोला छोड़ा। 'हुजूर महाराज साहेब' का व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था और . . उनकी बानियों में भी स्वानुभूति के ही उद्गार अधिक मिलते हैं । उनकी पच रचनाओं का प्रधान संग्रह प्रेम बानी’ के नाम से प्रकाशित है जिसके चार भाग है । उनकी गश् पुस्तकें भी बहुत हैं । उनकी अंग्रेजी पुस्तक ‘राधा सोआमी मत प्रका' सत्संग के मु य सिद्धांत जानने के लिए बहुत उपयोगी ‘थ है । वे अपने पदों द्वारा अपने सुखद अनुभव की बातें बारबार कहा करते रहे और अपने शब्दों द्वारा उसका सजोध चित्र खींचते रहे। । अपने गुरु के प्रति वे परम कृत हैं और उनकी महत्ता उन्हें 'परपुरुष पूरनधतो राधास्वामी' कह कर प्रकट