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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५७०

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आधुनिक युग ५७ सुनी में महिमा अचरज बोल । करी में राधास्वामी संत को तोल ।७। भरम. और संशय उठ भरे। बिtह अनुराग हि से जागे ।८। पता निज मालिक का पाया । भेद मि घर का दरएसtया है। समझ में नाई भक्सो रीत । शब्द की धारी अन परतोत 1१०। सुश्त का पाया अ जब ल खाव। सिफ़ सुन गुरु की बाढ़ा भाव १११. कहूँ क्या महिमाँ सतसंग सारा रम और शप दी, टावर है१२! श्रत नित बढ़ती गुरु व रना 1 धार लई से में सरही है१३। समझ मैं सनमें अस बारी। संत बि न जय न कोइ पी क१४। बिना उन सरन न उतरे पार। श8द बिन होय न कभी उधार 1१५। सरहूँ छिन छिन भाग अपना ' मिला मोहि सुरत शबद गहना ॥१६। हुआ मेरे हिरदे में उजियार में दया रास्वामी कोन्हें अपार १७है। पकड़ धुन चढ़ता नर्भ को ओर जोत लख नता अनहद घोर है १८है। सुन्न न सुनकर ही अमे । गुफा में जहां सोग जागे १९। सलपुर दर पुरुष कोन्हा । परे तिस अलख अगम चोन्हा ५२०। वहाँ से लपिछ राधास्वामी था ।मिला अब निजघरए कियक बिरस ।२१ से टोक धार रहे =प्रस्था रखते हैं । ने ख=सांप्रदायिक विचारों वाले। सिनत ==विशेषता, परिचय । पारी अंतिम लक्ष्य : गहना = पहुंच “ गहना मिला । =जहां तक का परिचय मिल गया। परे तिस उसके आगे ? (३) प्रेम भक्ति गुरु धार हिये , आधा सेवक मारा हो ।वेका। उनंग उसँग कर तन मन धन को, गुरु चरना पर बात हो ११३है । गुरु दरशन कर बिगसत मन में, रू हिये में बारा हो ३२॥ आठ हर गुरु संग रहाबे, जग से र झा न्यारा हो ३है। मन मया को आंख दिखाने, गुरुबल सूर करारा हो १४!!