युक्त शब्द-दोष रहित छंद और प्रभावपूर्ण शैली में हो तो वह अधिक अच्छी लगेंगी। उनका आग्रह केवल इसी बात के लिए है कि उसका विषय भी अवश्य सुंदर होना चाहिए। 'हरियश' ही संत सुंदरदास के अनुसार, काव्य का प्राण है उसके बिना वह, अन्य बातों से युक्त होता हुआ भी निर्जीव सा है। इस संबंध में उनका कहना है,
"नख-शिख शुद्ध कवित्त पढ़त अति नोकौ लग्गै।
अंगहीन जो पढ़ै सुनत कविजन उठि भग्गै॥
अक्षर घटि बढ़ि होइ षुडावत नर ज्यौं चल्लै।
मात घटै बढ़ि कोइ मनौ मतवारी हल्लै॥
औढेर काँण से तुक अमिल, अर्थहीन अंघो यथा।
कहि सुन्दर हरिजस जीव हैं, हरिजस बिन मृत कहि तथा॥"[१]
अर्थात् सर्वांग-शुद्ध होने पर ही कोई कविता अच्छी लगा करती है। अंगहीन होने पर उसे सुनते ही कविजन भाग चलते हैं। यदि किसी कविता में अक्षरों की न्यूनाधिकता होती है तो वह लुढ़कते हुए मनुष्य की भाँति चलती है और यदि उसमें मात्रा की घटी-बढ़ी होती है तो वह मतवाले की भाँति हिलती-डुलती रहा करती है। बेमेल तुकों वाली कविता ऐंचों-कानों की भाँति हुआ करती है और अर्थहीन काव्य अंधों से कम नहीं गिना जाता। फिर भी, उसका प्राण हरि यश ही कहा जायगा। उसके बिना कविता शवतुल्य है।
इस संबंध में एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि संतों की रचनाओं का प्रमुख उद्देश्य उनकी स्वानुभूति की अभिव्यक्ति रही है जिसमें पूर्णरूप से सफल हो जाना, यदि असंभव नहीं तो, अत्यंत कठिन
अवश्य कहा जा सकता है। अपने जीवन के एक साधारण से भी
- ↑ "सुन्दर ग्रन्थावली' (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ ९७२।