पृष्ठ:संत काव्य.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७
भूमिका

कांश को शुद्ध काव्य रचने की शक्ति नहीं थी और न उनका अपनी भाषा पर ही पूरा अधिकार था। उधर ब्रह्मात्मक स्वानुभूति का आनंदतिरेक उन्हें विह्वल एवं विभोर कर देता था और वैसी अपूर्व स्थिति में वे उस इंद्रियातीत के विषय में कुछ कह नहीं पाते थे। संत कबीर साहब ने उस दशा का वर्णन इस प्रकार किया है,

"अविगत अकल अनूपम देख्या, कहता कह्या न जाई।
सैन करें मन ही मन रहसै, गूंगै जानि मिठाई॥"

xxx

आपैं मैं तब आप निरव्या, अपन में आपा सूक्ष्य।
कहत सुनत पुनि अपना, अपन पैं आया बूझ्य॥"[१]

अर्थात् उस अव्यक्त, अखंड तथा अद्वितीय वस्तु का जो अनुभव हुआ वहां शब्दों द्वारा कोई प्रयत्न करना वैसा प्रकट नहीं किया जा सकता। इसके लिए है जैसा किसी गूंगे व्यक्ति का मीठेपन के अपने स्वाद को संकेतों द्वारा बतलाना और मन ही मन आनंदित भी होता जाना। .....उस दशा मैंने अपने में अपने को देख लिया और मुझे आपा अपने आप सूझ गया। अपने आपका ज्ञान मुझे स्वयं कहते-सुनते ही उपलब्ध हो गया। संत रविदास के अनुसार इस दशा में पूर्व शांतिमय संतोष की भी स्थिति आ जाती है और तब उस परम तत्त्व विषयक भजनादि तक की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका कहना है,

"गाइ गाइ अबका कहि गाऊं, गावनहार को निकट बताऊं॥टेक॥
जब लग है या तन की आसा, तब लग करें पुकारा।
जब मन मिल्यौ आस नहिं तन की, तब को गावनहारा॥१॥


  1. "कबीर ग्रंथावली' (का॰ ना॰ प्र॰ सभा), पद ६, पृष्ठ ९०।