की भक्ति भी उसी कोटि की थी। संत परंपरा की बाबरी साहिबा की साधना भी उसी ओर लक्ष्य करती है। इन स्त्रियों तथा पुरुष संत-कवियों में से कई एक ने उक्त प्राचीन कोरे अनुभूतिपरक प्रतीक को पति-पत्नी के स्पष्ट संबंध के रूप में भी परिणत कर लिया। उसका प्रयोग करते उसे मनोवेगों का रंग चढ़ाकर सजीव रूप दे दिया, फिर भी निर्गुणोपासकों एवं सगुणोपासकों में कुछ अंतर अवश्य रह गया। पहले वर्ग के साधकों की निराकारपरक भावना ने उन्हें बाह्य प्रदर्शनों के उस विस्तार से बचा लिया जिसमें पड़कर दूसरे वर्ग वाले अपने-अपने मूल उद्देश्य से बहुधा दूर हो जाया करते हैं। पहले वर्गवालों ने जहाँ, अपने प्रियतम को सर्वव्यापी मानते हुए, उसे अभेदभाव के साथ अपने भीतर अपना लेना चाहा, वहाँ दूसरे वर्गवाले उसे सब कुछ समझते हुए भी उसका अलौकिक सान्निध्य, सदा भेदभाव के साथ प्राप्त करने की अभिलाषा में मग्न रहे। अतएव, जहाँ एक की रचनाओं में लगभग पूर्ववत् ही बनी रही वहाँ दूसरे की रचनाएँ उसके संबंधपरक भावों से ही भर गई और मौलिक उद्देश्य उनमें बहुत कम दीख पड़ा।
दाम्पत्यभाव के प्रति प्रदर्शित संतों का उपर्युक्त दृष्टिकोण बहुत कुछ सूफ़ियों के समान था। सूफ़ी भी अपने को निर्गुणोपासकों में ही गिना करते थे और अपने प्रेम को 'इश्क़ हकीकी' अर्थात ईश्वरीय प्रेम की संज्ञा देते थे। अपने उद्गारों के आश्रयार्थ अपने प्रेमपात्र को किसी प्रकार का व्यक्तित्त्व प्रदान करना, वे भी संतों की ही भाँति आवश्यक समझते थे। किन्तु इस प्रतीक की भावना का स्वरूप उनके लिए संतों से कुछ भिन्न प्रकार का था। संतों ने अपने प्रियतम की भावना पुरुष रूप में की थी। वे अपने को उसकी पत्नी के रूप में मानकर उससे हिलमिल जाना चाहते थे। किंतु सूफ़ियों ने इसके विपरीत