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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/७४

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भूमिका

उसी एक अविनाशी को वरण करने की चर्चा करते हैं जब वे कहते हैं,

दुलहिनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आये हो राजाराम भरतार॥(टेक)॥
तन रत करि में मन रत करिहूं पंच तत बरालो।
रामदेव मोरै पाहुने आये, मैं जोबन मै माती॥
सरोर सरोवर वेदी करिहूं, ब्रह्म वेद उचार।
रामदेव संगि भांवरि लँहूं, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूं कौतिग घाये, सुनिवर सहस ग्रठ्यासी।
कहूँ कबीर हम व्याहि चले हैं, पुरिष एक अविनासो॥१॥[]

अर्थात् आत्मा को अब मंगलाचार गाने में प्रवृत्त हो जाना चाहिए क्योंकि मेरे घट के भीतर अब स्वयं स्वामी राजाराम ही प्रकट हो गए। अब मैं अपना तन-मन अर्थात् सभी कुछ उनके प्रति अर्पित कर दूँगा और पंचतत्त्व उस दशा में मेरे लिए बराती स्वरूप बन जायेंगे। में अपने पाहुने राम को अपने घट में पाकर फूला न समाऊँगा और उन्मत्त-सा हो जाऊँगा। स्वामी राम के साथ प्रणय सूत्र में बँधते समय मेरे शरीर का नाभिकमल वेदी का काम करेगा और ब्रह्मज्ञान की जागृति स्वयं वेदोच्चार का रूप ग्रहण कर लेगी। मैं अपने पति देव के साथ भाँवरे देने में व्यस्त रखूँगा और मेरे भाग्य की सराहना होने लगेंगी। उस दशा में सारे तैंतीस करोड़ देवता एवं अठासी सहस्र मुनिजन मेरे इस संबंध के सम्पन्न होने में सहयोग प्रदान करेंगे और में एक मात्र अविनाशी पति को वरण कर लूँगा। इसी प्रकार गुरु

नानक देव भी लगभग उसी बात को नीचे दी हुई पक्तियों द्वारा प्रकट करते हैं। वे कहते हैं,


  1. "कबीर ग्रंथावली' (का॰ ना॰ प्र॰ स॰ संस्करण), पृष्ठ ८७।