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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/८४

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भूमिका

(२) अजहूं न निकसै प्रांग कठोर।
दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर॥टेक॥
चारि पहर चारयौ जुग बीते, रैनि गंवाई भोर।
अवधि गई अजहूं नहिं आये, कतहूं रहे चितचोर॥१॥
कबहूं नैन निरषि नहिं देखें, मारग चितवत तोर।
दादू अैसे आतुर बिरहिणि, जैसे चंद चकोर॥२॥[]
(३) आव हमारे आंगणे, गृह त्रिभुवन राई।
तुम बिन में बिलखी फिरूं, अब रह्यौ न जाई॥टेक॥
कुल करणी सगली तजी, हरि श्रानन्द मांही।
तन तजबे की बेर है, मिलिये क्यूं नाहीं॥१॥
आरति ऊणा रति घणी, मेरा मन मांही।
दरस परस की बेर है, पति छांडौ नाहीं॥२॥
सति पिछाणे साचकूं, मनाँ न आने हीन।
मन आत्मा एकै मतै, तुम सूं ल्यौलीन॥३॥
जन हरिदास हरिसूं कहूँ, तुम बिन तन छीजै।
प्रेम पियाला प्याय के, अपणा करि लीजै॥४॥[]
(४) प्रेम बान जोगी मारल हो, कसकै हिया मोर॥टेक॥
जोगिया कै लालि लालि अंखियाँ हो, जस कंबल के फूल।
हमारी सुरुख चुनरिया हो, दूनो भये तूल॥१॥
जोगिया कै लेउ मिर्गछलवा हो, आपनपट चीर।
दूनौं के सियन गुदरिया हो, होइ जाब फकीर॥२॥
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो, ताकिन्हि मोरि ओर।
चितवन में मन हरि लियो हो, जोगिया बड़ चोर॥३॥


  1. 'दादूदयाल की वाणी', पद ६, पृष्ठ ३५९।
  2. 'हरिपुरुष जी को बाणी', पद १, पृष्ठ २०५।