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संत-काव्य


(८) बखतर पहिरे प्रेम का, घोड़ा है गुरु ज्ञान।
पलटू सुरति कमान लैं, जीति चले मैदान॥४०॥[१]
(९) झूठे सुखकौं सुख कहूै, मानत है मन मोद।
खलक चवीणां काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥१॥[२]
(१०)माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इजै पर्डल।
कहै कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत॥२०॥[३]

इन उद्धरणों में से प्रथम ८ में सांग रूपक तथा शेष दो में अभेद रूपक के उदाहरण स्पष्ट हैं। कुछ संतों ने कभी-कभी किसी कथा वा घटना का सहारा लेकर भी रूपक के प्रयोग किये हैं जैसे संत हरिदास निरंजनी ने अपनी 'व्याहलों' नाम की रचना में कृष्ण द्वारा रूक्मिणी के के परिणीत किये जाने की कथा को साधक के 'रामराई' द्वारा अपना लिये जाने की घटना में घटाया है।

विभावना

(१) जाइ पूछौ गोविंद पढिया पंडिता, तेरा कौन गुरू कौन चेला।
अपणै रूपकौं आपहिं जाणै, आपै रहँ अकेला॥टेक॥
बांझ का पूत बाप बिन जाया, बिन पांऊ तरवर चढिया।
अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया बिन बँडै संग्राम जुडिया।
बीज बिन अंकूर पेड़ बिन तरवर, बिन सावा तरवर फलिया।
रूप बिन नारी पहुप बिन परमल, बिन नरें सरवर भरिया।
देव बिन देहुरा पत्र बिन पूजा, बिन पाँष भंवर बिलंबिया।
सूरा होइ परम पद पावै, कीट पतंग होइ सब जरिया॥
दीपक बिन जोति जोति बिन दीपक, हद बिन अनाहद सवद बागा
चेतना होइ सो चेति लीज्यों, कबीर हरि के अंगि लागा॥१५८॥[४]


  1. 'पलटू साहब की बानी', पृष्ठ १०४ (स॰ ४०)।
  2. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ ७१ (सा॰ १) और पृष्ठ ३ (सा॰ २०)।
  3. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ ७१ (सा॰ १) और पृष्ठ ३ (सा॰ २०)।
  4. 'कबीर ग्रंथावली', पृष्ठ १४० (पद १५८)।