पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पहला लड] पाण्डवों का राज्यहरण महाबली और महापराक्रमी भीमसेन, भीष्म का यह अपमान न सह सके । वे लाल लाल आँखें करके शिशुपाल की ओर झपटने ही वाल थे कि पितामह ने उनको रोक कर शांत किया और कहने लगे :- हे शिशुपाल ! मालूम होता है कि यह झगड़ा यों न समाप्त होगा । जिन कृष्ण की हमने पूजा की है और जिनका तुम अपमान कर रहे हो वे तो सामने ही मौजूद हैं। इसलिए यदि तुममें दम हो तो उनसे लड़ कर अपनी वीरता दिखाओ। इस बात से उत्तेजित होकर शिशुपाल ने कृष्ण को ललकाग :- जनार्दन ! आ हमारे साथ युद्ध कर। जरासन्ध ने तुझं दास समझा था। इसलिए तुझे छोड़ कर भीम से युद्ध किया था। आज हमारे हाथ से तू किसी तरह नहीं बच सकता। तब कृष्ण धीर से खड़े हुए और मीठे तथा गम्भीर स्वर में सबसे कहने लगे :- हे राजेन्द्रगण ! इस मन्दमति ने कई बार हमारी बुराई, हमाग अपमान और हमसे शत्रता की है । पर हमने इसकी माता से एक समय प्रतिज्ञा की थी कि हम तुम्हारे पुत्र के सौ अपराध क्षमा कर देंगे.-और अपराध भी ऐस जिनका प्रायश्चित्त मृत्यु ही से हो सकता है। इसी लिए हम इस पापी को अब तक छाड़ते आये हैं। पर इस समय इसके सौ से भी अधिक अपराध हो चुके। इसलिए आज इसका काल आ पहुंचा है। यह कह कृष्ण ने सहसा सुदर्शन चक्र फेंक कर शिशुपाल का सिर काट लिया। शिशुपाल वन की चाट से फटे हुए पर्वत की तरह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। कृष्ण का तेज देख कर राजा लोग दंग रह गये । ब्राह्मण लोग उनकी स्तुति करने लगे। युधिष्ठिर ने भाइयों को शिशुपाल की अन्त्येष्टिक्रिया करने की आज्ञा देकर, शिशुपाल के पुत्र को तुरन्त चेदिराज की गद्दी दी। इसके बाद यज्ञ के सब काम निर्विन होत गये और राजसूय महायज्ञ अच्छी तरह समाप्त हुआ। यज्ञ के बाद युधिष्ठिर ने अवभृथ नाम का आखिरी स्नान किया। स्नान हो चुकने पर निमन्त्रित राजा लोग उनके सामने आकर उपस्थित हुए और अपनी अपनी भेट देकर बाल :- हे धर्मराज ! आज सौभाग्य से आपने निर्विन साम्राज्य पाया है। इससे हम लोगों को परमानन्द हुआ है, क्योंकि यह काम हमारे भी यश बढ़ाने का कारण है। अब आज्ञा दीजिए, हम लोग अपने अपने राज्य को लौट जाएँ। युधिष्ठिर ने प्रसन्न होकर राजों की पूजा ग्रहण की और भाइयों से बाल :- हे भाइयो ! ये गजा लोग प्रीतिपूर्वक हमारे राज्य में आये थे। अब हमारी अनुमति से बिदा होते हैं । हमारे राज्य की हद तक इनके साथ साथ जाव । इसके बाद सबके द्वारा पृजित होकर और अपने गरुड़ के चिह्नवाले रथ पर चढ़ कर कृष्ण द्वारका को लौट गये । हस्तिनापुर से आये हुए कौरव लोग भी अपने घर गय केवल दुर्योधन और उनके मामा शकुनि मय दानव की बनाई हुई सभा अच्छी तरह देखने के लिए रह गये । ७-पाण्डवों का राज्यहरण राजा दुर्योधन धीरे धीरे शकुनि के साथ घूमते हुए मय दानव की बनाई हुई युधिष्ठिर की सभा देखने लगे । उन्होंने उसकी बनावट का जैसा आश्चर्य-जनक ढंग देखा वैसा उसके पहले कभी न देखा था।