सचित्र महाभारत [पहला खण्ड एक घर में स्फटिक के फ़श पर स्फटिक ही के पत्तोंवाले खिले हुए कमल देख कर जल के श्रम से वहाँ उन्होंने जो पैर रक्खा तो सहसा ज़मीन पर गिर पड़े। यह देख कर भीम और उनके नौकर-चाकर हँस पड़े। फिर एक बार म्फटिक की बनी हुई दीवार को दरवाज़ा समझ कर उन्होंने उससे निकलने की चेष्टा की। इससे उनके माथे पर बड़ी कड़ी चोट लगी। चक्कर आ जाने से गिरने ही वाले थे कि सहदेव ने जल्दी से आकर उनको पकड़ लिया। और एक जगह सरोवर के स्वच्छ जल को स्फटिक समझ कर वे कपड़े पहने हुए उसमें जा गिरे। तब भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव कोई भी हँसी न रोक सके। उस समय युधिष्ठिर की आज्ञा से नौकरों ने जल्दी से अच्छे अच्छे वस्त्र लाकर उनको दिये। ___ इसके बाद दुर्योधन की बुद्धि ठिकाने न रही। वह चकरा सी गई। वे सब जगह जल का थल और थल को जल समझने लगे। कई जगह पर स्फटिक की दीवार का धोखा खाकर हाथ से उस टटोलन की कोशिश में वे गिरते गिरते बचें। ____ दुर्योधन की इस दुर्दशा को देख कर पाण्डव लोग उनकी दिल्लगी करने लगे। दुर्योधन स्वभाव ही से क्रोधी थे। तथापि उन्होंने उस दिल्लगी को सुनी अनसुनी करके टाल दिया। पर सच पूछिए तो ये बातें उनके हृदय में काँटे की तरह चुभ गई। उन्होंने मन ही मन कहा, चाहं जैसे हो, इसका बदला ज़रूर लेना होगा। इसके बाद अनेक प्रकार के अद्भुत अद्भुत दृश्य देख कर युधिष्ठिर की आज्ञा से दुर्योधन ने हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में वे महात्मा पाण्डवों की अतुल महिमा, गजा लोगों का पूर्ग तौर से उनके वश में होना, युधिष्ठिर का अनन्त एश्वर्य और सभा की अपूर्व शाभा की चिन्नना करनं हुए बड़े उदास मन से चलने लगे । शकुनि समझ गये कि ये किसी सोच में ज़रूर है। अतएव उन्हें चुपचाप दंग्य कर शकुनि ने कहा :-- हे दुर्योधन ! मालूम होता है, तुम किसी साच में हो । कहाँ, क्या बात है ? दुर्योधन ने कहा :-मामा ! सागर पर्यन्त इम पृथ्वी को पूरी तौर से युधिष्ठिर के वश में देख और इन्द्र के यज्ञ की तरह इस महायज्ञ को अवलोकन कर हम क्रोध सं जल रहे हैं। अधिक क्या कहें, हम भीतर ही भीतर इस तरह जल रहे हैं कि इसकी अपेक्षा दहकती हुई आग में घुस जाना, अथवा विष खाकर मर जाना, या नहीं तो पानी में डूब कर इस प्रचण्ड ज्वाला से अपनी रक्षा करना हम अच्छा समझते हैं । कौन आत्माभिमानी पुरुष अपन वैरी की बढ़ती और अपनी गिरी दशा को सह सकता है ? परन्तु हमने इस सह लिया है, इससे हम स्त्री और पुरुप दोनों ही से नीच हैं। यदि हम स्त्री होते तो ऐसी दुर्दशा में न पड़ते और यदि हम पुरुष होते तो इस आपदा से उद्वार पाने की चेष्टा करते । युधिष्ठिर का ऐश्यर्य्य देख कर और पाण्डवों के मुँह से अपनी दिल्लगी सुन कर हम बड़े ही दुःखित हुए हैं। इसलिए हे मामा ! हमें मरने की आज्ञा देकर यह सब हाल पिता से कह देना। शकुनि ने दुर्योधन को धीरज देकर कहा : हे दुर्योधन ! पाण्डवों ने तुम्हारी ही तरह आधा राज्य पाकर अपनी चष्टा से उस बढ़ाया है। इसमें दु.ख की कौन सी बात है ? अधीर होने का हम कोई कारण नहीं देखतं । उलटा तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए। तुम भी वीर हो। तुम्हारे भी सहायक हैं । क्या तुम इस अखण्ड भूमण्डल को न जीत सकोगे ? तब दुर्योधन ने कुछ धीरज धर के कहा :- हे राजन्. यदि तुम्हारी सलाह हो तो हम तुम्हारी और अन्य मित्रों की महायता से अभी
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