पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/११०

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०० सचित्र महाभारत [ पहला खण्ड तब शकुनि ने उनको भी पास के बल से अपने वश में कर लिया। अन्त में क्षोभ से पागल होकर युधिष्ठिर ने अपने को भी दाँव पर रख दिया और हार गये। इस तरह पाँचों भाई गुलामी की जंजीर में बँध गये। इससे भी तृप्त न होकर दुरात्मा शकुनि कहने लगा :- मालूम होता है कि पागल आदमी बार बार गढ़े ही में गिरता है । हे धर्मगज ! तुम पाण्डवों में श्रेष्ठ हो। इसलिए तुम्हें नमस्कार है। लोग सच कहते हैं कि जुआरी आदमी के मुँह से जो बातें निकल जाती हैं उनकी कल्पना स्वप्न में भी नहीं हो सकती। हे गजन् ! अभी तुम्हारी प्यारी द्रौपदी बची हुई है। फिर क्या समझ कर तुम अपने को हार गये ? और सम्पत्ति के रहते अपने को दाँव पर रखना मूों का काम है। हे उन्मत्त ! हम तुमको दाँव पर रखते हैं। तुम द्रौपदी को रख कर अपने को छुड़ाओ। युधिष्ठिर ने कहा :-हे शकुनि । जो सुशीला, प्रिय बोलनेवाली और लक्ष्मी के समान है उसी अत्यन्त सुन्दरी द्रौपदी को हमने दाँव पर रक्खा । धर्मराज के मुह से यह अंडवंड बात सुनते ही जितने आदमी सभा में बैठे थे वे सब उन्हें धिक्काग्ने लगे। गजा लोग शोक के समुद्र में डूब गये। भीष्म, द्रोण, कृप आदि महात्माओं के शरीर मे पसीना निकलने लगा। विदुर माथा पकड़ कर लम्बी लम्बी साँमें लेने लगे और अचेत आदमी की तरह मुँह लटका कर रह गये। पुत्र की इस जीत से धृतराष्ट्र को जो आनन्द हुआ उसे वे छिपा न सके । वे बार बार पूछने लगे-"क्या जीता ? क्या जीता ?" धृतगष्ट्र की मति बदलने देख कर्ण, दुर्योधन और दुःशासन को बड़ी प्रसन्नता हुई। इस बार भी पहले की तरह शकुनि ही की जीत हुई। तब बदला लेने की इच्छा से फूल कर दुर्योधन बोले :- ह विदुर ! तुम शीघ्र जाकर पाण्डवों की प्राणप्यारी द्रौपदी को ले आओ। दासियों के साथ द्रौपदी भी हमारे घर में बुहारी लगावे । विदुर ने कहा :-हे मूढ़ ! तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बुरे दिन आनेवाले हैं। इसी से तुमने से दुर्वाक्य कहने का साहस किया है। हिरन होकर तुमने बाघ को कुपित किया है। तुमने लोभ के वश होकर किसी का सदुपदेश नहीं सुना। इसम्म निश्चय जानना, वंशसहित शीघ्र ही तुम्हारा नाश होगा। मदमाते दुर्योधन ने विदुर से केवल धिक कहा और सभा में बैठे हुए सूतपुत्र की तरफ़ देख कर वे बोले :- हे सूतपुत्र ! मालूम होता है, विदुर डर गये हैं। इससे तुम जल्दी से जाकर द्रौपदी को ले आओ। पाण्डव लोग तुम्हारा कुछ नहीं कर सकतं । आज्ञा पाकर सूतपुत्र शीघ्र ही पाण्डवों के घर गया और द्रौपदी से बोला :- हे द्रौपदी ! जुआ खेलते खेलते पागल से होकर युधिष्ठिर ने तुमको दाँव पर रक्खा था। दुर्योधन ने तुमको जीत लिया है । वे तुम्हें सभा में बुलाते हैं। द्रौपदी ने कहा :-हे सूतपुत्र ! तुम कैसी बातें करते हो ? कोई राजकुमार क्या कभी स्त्री को भी दाँव में रख कर खेलता है ? युधिष्ठिर के पास क्या और कुछ सम्पत्ति न थी ? सूतपुत्र ने कहा :-हे द्रुपदनन्दिनी ! महाराज युधिष्ठिर पहले अपने सब धन को, फिर अपने भाइयों समेत अपने को हार गये थे। अन्त में उन्होंने तुमको जुए के मुँह में फेंका है।