पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का राज्य करना १२१ सेनानायक लोग राजा के आज्ञानुसार सरोवर के तट पर जाकर बोले :- हे गन्धर्वगण ! धृतराष्ट्र के पुत्र महाबली और महापराक्रमी राजा दुर्योधन यहाँ विहार करने आते हैं। इसलिए तुम लोग शीघ्र ही चले जाव । गन्धर्वो ने हँस कर रुखाई से उत्तर दिया :-- अरे मूढ़ सिपाहियो ! तुम्हारा राजा महामूर्ख है। इसलिए वैश्यों की तरह हमें आज्ञा देने को तैयार हुआ है। क्या तुम्हें भी अपने प्राणों का भय नहीं है जो हम लोगों को उसकी आज्ञा सुनाने आये हो ? यह सुनते ही सेनानायक लोग जल्दी जल्दी दुर्योधन के पास लौट आये और जो कुछ गन्धर्वो ने कहा था वह सब कह सुनाया। प्रतापी दुर्योधन को बड़ा क्रोध आया; उन्होंने कहा :- हे सैनिकगण ! तुम शीघ्र ही इन गन्धवों को इनकी ढिठाई का मजा चखाओ। यदि खद इन्द्र भी इनकी सहायता करें तो भी न डरना। यह सुनते ही सब योद्धा कमर कस का और सिंह की तरह गरज कर दशो दिशाओं को गुंजात हुए सरोवर की तरफ़ दौड़े। खद दुर्योधन को सैनिकों के साथ आन देख बड़े बड़े गन्धर्वो ने उन्हें समझा बुझा कर रोकन की चेष्टा की। पर जब देखा कि कोरी बातों से काम नहीं चल सकता तब उन्होंने गन्धर्वराज से सब हाल कह सुनाया। उन्हें बड़ा क्रोध आया। फल यह हुआ कि दोनों पक्षों में घोर युद्ध होने लगा। कौरवों के सैनिक गन्धर्वो का प्रबल प्रताप और मायायुद्ध जरा देर भी न सह सके। दुर्योधन के सामने ही वे भागने लगे। महाबली कर्ण सैनिकों को भागते हुए देख कर भी युद्ध से नहीं हटे। तरह तरह के अस्त्रों से उन्होंने बहुत से गन्धर्व मारे । यह देख कर वह जगह गन्धर्व-सेना से भर गई । जब वे भी कर्ण, दुर्योधन आदि वीरों को न हरा सके तब खुद गन्धवराज चित्रसेन आकर मायावी अस्त्र चलाने लगे। तब किसी ने कर्ण के रथ के बम को, किसी ने पहियों को, किसी ने सारथि को, किसी ने घोड़ों को नष्ट किया। इससे कर्ण बिलकुल ही बेबस हो गये । उन्होंने अपना रथ छोड़ दिया और विकर्ण के रथ पर चढ़ कर भागे। किन्तु राजा दुर्योधन ने क्रोध और घमण्ड के कारण अन्त तक युद्ध का मैदान न छोड़ा। गन्धर्वो ने उन्हें घेर कर उनका रथ नष्ट कर दिया और उन्हें जीते जी पकड़ लिया। उन्होंने दुर्योधन की असहाय रानियों को भी कैद कर लिया और सबको लेकर वे इधर उधर चल दिये।। दुर्योधन के मन्त्री लोग यह दशा देख हक्का बक्का हो गये। उन्हें और कोई उपाय न सूझा। सरोवर की दूसरी तरफ़ रहनेवाले पाण्डवों के पास वे दौड़े गये और उनकी शरण ली । दुर्योधन की दुर्दशा का हाल सुन कर भीमसेन हँसे और स्वर बदल कर बोले :- जिस काम के लिए हम लोग बड़ी बड़ी तैयारियाँ कर रहे थे वह काम आज गन्धों ने हमारे जाने बिना ही कर डाला । दुर्योधन समझता था कि छल से प्राप्त किया हुआ धन वह सुख से भोग करेगा। किन्तु कैसे सौभाग्य की बात है कि हमारे कुछ न करने पर भी दुर्योधन ने दूसरे ही के हाथ से अपने पाप का दण्ड पा लिया। भीम की यह बात युधिष्ठिर को अच्छी न लगी । वे असन्तुष्ट होकर बोले :- हे भीम ! इस समय ऐसे दुर्वाक्य कहना उचित नहीं। कौरव लोग, विशेष कर कौरव-स्त्रियाँ, दर्दशा में फंस कर हमारी शरण आई हैं। दसरे के हाथ से उनका अपमान होते हम कैसे चपचाप देख सकते हैं। हे भीम ! हे अर्जुन ! तुम नकुल और सहदेव को साथ लेकर दुर्योधन को गन्धवों के हाथ से छुड़ाओ। हमारी शरण श्राकर कौरव लोग यदि हमारी चेष्टा से छूट जाय तो इससे बढ़ कर आनन्द की बात और क्या हो सकती है ? यदि हम यज्ञ न करते होते तो खुद ही उठ दौड़ते। फा०१६
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