१७० सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड क्या हो सकता है। परन्तु यह बात धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों ही के किये हो सकती है। पाण्डव लोग नरमी का बर्ताव करने के लिए भी तैयार हैं, और ज़रूरत होने पर कठोरता का बर्ताव करने के लिए भी तैयार हैं । यह बात तुम कौरवों से जाकर यथावत् कह देना। __सञ्जय ने उत्तर दिया :-हे धर्मराज ! आपका कल्याण हो ! हम अब जाते हैं। अपना पक्ष समर्थन करने में यदि हमसे कोई बात अनुचित निकल गई हो तो उसके लिए हम आपसे क्षमा माँगते हैं। युधिष्ठिर ने कहा :-हे सञ्जय ! आप विश्वासपात्र दूत हैं और हमारे हितचिन्तक भी हैं। आपकी कोई बात हमें अप्रिय नहीं हो सकती। जो कुछ हमने आपसे कहा है उसे आप कौरवों और अन्यान्य क्षत्रियों से अच्छी तरह कह दीजिएगा और दुर्योधन से आप हमारी तरफ़ से यह कहिएगा कि :- __ हे दुर्योधन ! तुम्हारे हृदय में जो लोभ घुसा हुआ है वही तुमको सन्ताप दे रहा है और वही कुरुवंशियों का सबसे बड़ा शत्र है। किन्तु हे वीर ! तुम यह न समझना कि तुम्हारे मन का अभिलाष पूर्ण होगा। या तो तुम उस बुरे अभिलाप को छोड़ कर इन्द्रप्रस्थ हमारे हवाले करो या युद्ध के लिए तैयार रहो। पितामह भीष्म को प्रणाम करके यह कहना कि :- हे पितामह ! आपने पहले एक बार प्राय: पूरे तौर पर डूबे हुए कुरुवंश का उद्धार किया है। इस समय भी आप अपनी सम्मति प्रकट करके युद्ध की आग से पौत्रों की रक्षा कीजिए। महाराज धृतराष्ट्र के सामने सिर झुका कर कहना कि :-- हे राजन् । आप ही की कृपा से आपके भतीजों को राज्य प्राप्त हुआ था। अब उसी राज्य से उन्हें निकाल देने का क्यों आप यत्न कर रहे हैं ? और, विदुर से कहना कि :- हे सौम्य ! आपने हमेशा हमारी ही तरफ़दारी की है। अब भी वही करके दोनों पक्षों की अनिष्ट से रक्षा कीजिए। इसके बाद कुछ देर तक सोच विचार कर धर्मराज ने फिर कहा :- हे सञ्जय ! तुमने यह सच कहा कि धन-सम्पत्ति का मोह नहीं छोड़ा जाता, यह हम जानते हैं। इस कारण इस विषय में सबसे अधिक जिम्मेदारी हमारे ही ऊपर है । इसलिए तुम हमारी आखिरी शर्त सुन लो । वह शर्त यह है कि हम पाँचों भाइयों को सिर्फ पाँच गाँव मिलने से राज्य का दावा छोड़ कर हम सन्धि करने को तैयार हैं। इसके अनन्तर युधिष्ठिर की आज्ञा से सजय ने हस्तिनापुर को प्रस्थान किया। सन्ध्या-समय वे राजमहलों के द्वार पर पहुँचे और द्वारपाल के द्वारा अपने आने का समाचार राजा धृतराष्ट्र के पास भेजा । द्वारपाल ने जाकर धृतराष्ट्र से निवेदन किया :- महाराज ! पाण्डवों के पास से सञ्जय लौट आये हैं । इस समय वे द्वार पर खड़े हैं और भीतर आने के लिए आपकी आज्ञा चाहते हैं । धृतराष्ट्र ने कहा-उनको शीघ्र ही भीतर ले आओ। समय हो या असमय, हम सञ्जय से मिलने के लिए सदा ही समय निकाल सकते हैं। तब सञ्जय ने भीतर आकर कहा :-
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