पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा खण्ड ] शान्ति की चेष्टा १७१ महाराज ! हम सञ्जय हैं। आपको प्रणाम करते हैं । इसके बाद धृतराष्ट्र ने बड़े आग्रह के साथ सञ्जय से प्रश्न करना प्रारम्भ किया। सब्जय ने पाण्डवों का कुशल समाचार कह कर इस प्रकार उत्तर दिया :- दूसरी दफ़ जुआ खेलने के पहले आपने पाण्डवों को जो कुछ दिया था वही लेकर पाण्डव लोग सन्धि करने को तैयार हैं। बात यद्यपि कड़ी है, तथापि कर्तव्यवश हम कहने के लिए लाचार हैं कि अपने मन्द-बुद्धि पुत्रों के प्रीति-जाल में फंस कर आपने बहुत बुरा काम किया। इस समय सावधान हूजिए, जिसमें आपके अपराध से कुरुकुल का जड़ से नाश न हो जाय । महाराज ! हम बेतरह रथ दौड़ाते हुए आये है। इससे बहुत थके हुए हैं। आज्ञा हो तो इस समय हम अपने घर जायँ । कल प्रात:काल सभा में सब लोगों के सामने युधिष्ठिर आदि ने जो कुछ कहा है वह सब हम विस्तारपूर्वक कहेंगे। सञ्जय के चले जाने पर धृतराष्ट्र ने द्वारपाल से कहा :- हम विदुर से मिलने के लिए बहुत व्याकुल हो रहे हैं । इससे उन्हें तुरन्त बुला लाओ। महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा पाते ही विदुर राजभवन में धृतराष्ट्र के पास जाकर उपस्थित हुए और बोले :- महाराज ! हम विदुर हैं। आपके आज्ञानुसार आपके पास उपस्थित हुए हैं । धृतराष्ट्र ने कहा :-हे धर्म-प्रिय ! सञ्जय लौट आया है; परन्तु युधिष्ठिर ने क्या उत्तर दिया है से अभी तक हम नहीं जान सके। इससे हमें बड़ी चिन्ता हो रही है। तुम्हारे साथ बात-चीत करके मन को शान्त करना चाहते हैं। विदुर बोले-महाराज ! जो कोई अन्याय या बहुत बड़े साहस का काम करने का विचार करता है उसी को नींद नहीं आती। आप कोई उस तरह का विचार तो मन ही मन नहीं कर रहे हैं ? धृतराष्ट्र ने कहा-हे विदुर ! इस समय क्या करना उचित है, यही तुमसे सुनने की हम इच्छा रखते हैं । जो कुछ कर्तव्य हो कहा। विदुर बोले-महाराज ! आप आँखों से हीन हैं। इसलिए युद राज-काज नहीं देख सकते । परन्तु दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दुःशासन के ऊपर राज्य का भार रख कर किस प्रकार आप कल्याण की आशा रखते हैं ? वन में जन्म लेकर पाण्डु के पुत्र आप ही की कृपा से इतने बड़े हुए; आप ही की कृपा से उन्हें राज्य प्राप्त हुआ; और आप ही की कृपा से सब प्रकार के अच्छे-अच्छे गुणों से वे अलंकृत हुए। इससे उनको राज्य का उचित भाग देकर आप आनन्द से अपना समय व्यतीत करें। ऐसा होने से आपको किसी से कछ भी डरने का कारण न रहेगा। धृतराष्ट्र ने कहा-हे विदुर ! तुम जो कुछ कहते हो वह परिणाम में जरूर हितकर है। अन्त में उसका फल जरूर अच्छा होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु वैसा करने से दुर्योधन हमसे छूट जायगा । यह ऐसी बात है जिसे हम किसी तरह नहीं कर सकते । । विदुर ने कहा-आप यदि अपने पुत्रों को किसी तरह भी क़ाबू में नहीं रख सकते, तो आप निश्चय जानिए कि थोड़े ही दिनों में, पाण्डवों की नहीं, किन्तु अपने ही पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुन कर आपको व्याकुल होना पड़ेगा। इसकी अपेक्षा यदि आप पाण्डवों को दो चार गाँव ही दे डालने पर राजी हों, तो भी आपके पुत्रों की रक्षा हो सकती है। धृतराष्ट्र ने कहा-हे चतुर-चूड़ामणि! आपका उपदेश बहुत ही अच्छा है । उसे हम जी से मानते हैं । पाण्डवों को राज्य देने से हमें कोई इनकार नहीं। किन्तु दुर्योधन की बातें स्मरण होते ही