१७२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड हमारी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती। इसी से मनुष्य की चेष्टा को हमने व्यर्थ समझ कर भाग्य ही को मुख्य माना है। इसी तरह बात करते करते वह रात बीत गई । विदुर ने धृतराष्ट्र से अनेक धर्मकथायें कहीं और अनेक अच्छे अच्छे उपदेश दिये। जहाँ तक उनसे हो सका उन्होंन बार बार यही दिखाया कि पाण्डवों के साथ न्याय करना ही उचित है। प्रात:काल होने पर भीष्म को, द्रोण को और अपने मित्र राजों को आगे करके महाराज धृतराष्ट्र सभा-भवन में जाने के लिए घर से निकले । कर्ण, शकुनि और भाइयों के साथ दुर्योधन भी उनके पीछे पीछे चल । सबने सभाभवन में प्रवेश किया । सभाभवन खब सजा हुआ था। सारे भवन में चन्दन का रस छिड़का गया था। उसके बीचोबीच सोने का एक चबूतरा था। वहाँ सोने, चाँदी, हाथीदांत, लकड़ी और पत्थर के उत्तमोत्तम आसनों पर जो जिस योग्य था अपनी अपनी जगह पर बैठ गया । कुछ देर बाद द्वारपाल ने आकर निवेदन किया :- महाराज ! हमारे दूत सूत-पुत्र सजय तंज चलनेवाले रथ पर सवार आ रहे हैं। इसके बाद ही सजय सभाभवन के द्वार पर आ गये । रथ से उतर कर शीघ्र ही उन्होंने राज- सभा में प्रवेश किया । सबको यथाविधि प्रणाम-नमस्कार करके वे बोले :- हे कौरव-गण और हे राजवृन्द ! हम पाण्डवों के पास से लौट आये । आप अब वहाँ का सब हाल हमसे सुनिए। धर्मराज के पास जाकर महाराज धृतराष्ट्र का सब सँदेशा हमने कहा। उसे सुन कर पाण्डवों ने पहले तो सबका कुशल-समाचार पूछा। फिर जैसा जिसके लिए उचित था प्रणाम, आशीर्वाद आदि कहा। यह कह कर सजय ने क्रम क्रम से युधिष्ठिर और कृष्ण ने जो जो बातें कही थीं सब एक एक करके कह सुनाई। युद्ध के लिए जो जा तैयारियाँ हुई थीं, उन सबका वर्णन भी उन्होंने विस्तारपूर्वक किया। यह सुन कर धृतराष्ट्र अपने मन का वेग न सँभाल सके । और किसी को बोलने का अवसर न देकर वे खुद ही पाण्डवों की बात का समर्थन करने के लिए उद्यत हुए। वे बाल :- पाण्डवों ने जैसी युद्ध-सामग्री और सहायता प्राप्त की है, अर्जुन ने दिव्य अस्त्र चलाने की जैसी शिक्षा पाई है, और भीमसेन जितने बलवान हैं, उसे देखते दुर्योधन ने उनके साथ झगड़ा करके बुद्धिमानी का काम नहीं किया। युद्ध होने से कौरवकुल का बचाव होना बहुत कठिन है। यह बात हमें प्रत्यक्ष देख पड़ती है; इसमें कोई सन्देह नहीं। इससे भीष्म, द्रोण, विदुर आदि जो उपदेश देते हैं उसे मानना हम बहुत जरूरी समझते हैं । पाण्डवों ने जो प्रस्ताव किया है वह धर्म-संगत है। उनकी बात मान लेना चाहिए और उनकी शर्त पूरी करके उनके साथ सन्धि-स्थापन करना चाहिए । इसी में हमारा कल्याण है। यह सुन कर भीष्म, द्रोण आदि सभी ने धृतराष्ट्र की सम्मति की प्रशंसा की । सबने यही कहा कि महाराज धृतराष्ट्र की बात मान लेने ही में भला है। परन्तु दुर्योधन को यह बात बहुत ही बुरी लगी। उससे यह उपदेश सहा न गया । वह बोला :- हे पिता ! श्राप क्यों व्यर्थ डर कर हमारे लिए शोक करते हैं। हम अपने शत्रु की अपेक्षा किस बात में कमजोर हैं जो आप हार जाने के भय से इतना व्याकुल हो रहे हैं । पितामह भीष्म ने एक बार पहले कैसा अद्भुत युद्ध करके सारे राजों को जो अकेले ही हरा दिया था सो क्या आप भूल गये ? द्रोण, कृप और अश्वत्थामा हमारी तरफ हैं। फिर अर्जुन हमारा क्या कर सकेगा ? उससे हमारा एक बाल भी बाँका होने का नहीं । भीम को हम खुद गदा-युद्ध में हरा सकते हैं। इसके सिवा इस समय सारा राज्य हमारे हाथ में है और ये सब रथी, महारथी राजे हमारे अधीन हैं । फिर आप ही कहिए कि पाण्डवों का
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