१८५ दूसरा खण्ड ] शान्ति की चेष्टा कृष्ण की बात समाप्त होने पर भीष्म उनके प्रस्ताव का समर्थन करके दुर्योधन को समझाने लगे :- हे दुर्योधन ! महात्मा कृष्ण ने जो उपदेश तुम्हें दिया वह बहुत ही उचित और धर्मसंगत है। तुम्हें उनका कहना मानना चाहिए । देखो, व्यर्थ अपनी प्रजा का नाश न करना । सावधान, माता-पिता को शोक-सागर में न डुबो देना। किन्तु दुर्योधन ने भीष्म की बातों का आदर न किया। मारे क्रोध के वे लाल हो गये। बड़े जोर से उनकी साँस चलमे लगी। तब विदुर ने कहा :- हम तुम्हारे लिए शोक नहीं करते । किन्तु, तुम्हारे बूढ़े माता-पिता के लिए व्याकुल हो रहे हैं। क्योंकि तुम्हें पैदा करके सारे पुत्रों और सारे मित्रों के मारे जाने पर पंख कटे हुए पक्षी की तरह वे अनाथ हो जायेंगे । इसी से हम इतना शोकाकुल हो रहे हैं। । । तब धृतराष्ट्र फिर दुर्योधन को मनाने लगे। वे बोले :-- बेटा ! श्रीमान् कृष्ण का उपदेश सब तरह कल्याण का करनेवाला है । उसे मान लेने से तुम्हारे ऐश्वर्या में कुछ भी कमी न होगी। राज्य का आधा अंश जो तुम दे दोगे तो महात्मा कृष्ण की सहायता से तुम अपना राज्य उसकी भी अपेक्षा अधिक बड़ा कर सकोगे। इनका कहना न मानने से तुम्हारी हार हुए बिना न रहेगी। इसमें कुछ भी सन्देह न समझो। अन्त में द्रोण ने कहा :- हे दुर्योधन ! अब तक भी अर्जुन ने वर्म-धारण नहीं किया; अब तक भी उन्होंने ईस्पात की जाली का कोट नहीं पहना; अब तक भी गाण्डीव धन्वा पर उन्होंने प्रत्यचा नहीं चढ़ाई; अब तक भी पुरोहित धौम्य ने युद्ध में विजय पाने के लिए यज्ञ-सम्बन्धी अग्नि में आहुतियाँ नहीं डाली। इससे अब भी भूल सुधार लेने का समय है; अब भी कुमार्ग छोड़ कर सुमार्ग में आने के लिए अवकाश है; अब भी होने- वाला महाभयकर मनुष्य-नाश निवारण किया जा सकता है। तम प्रसन्न-चित्त होकर पाण्डवों को उनका अंश दे डालो वे भी प्रेमपूर्वक तुम्हें गले से लगावें; जो राजा लोग इस समय यहाँ एकत्र हैं वे भी पाण्डवों के साथ तुम्हारा फिर मिलाप होते देख अानन्द के आँसू बहावें। राजा दुर्योधन ने और किसी की बात पर कुछ भी ध्यान न दिया। केवल कृष्ण के कथन का वे कठोरतापूर्वक उत्तर देने लगे :- हे वासुदेव ! तुम्हें समझ बूझ कर हमारे साथ बातचीत करना चाहिए । सो वैसा न करके तुम क्यों हमारी वृथा निन्दा करते हो ? तुमने पाण्डवों का कौन सा इतना बल-पराक्रम देखा, जो तुम उनके इतने भक्त हो गये ? केवल तुम्ही नहीं-भीष्म, द्रोण, विदुर श्रादि सभी ने क्रम क्रम से हमारी ही निन्दा की। परन्तु, बहुत विचार करने पर भी हम यह न जान सके कि हमने क्या अपराध किया है। जुत्रा खेलने का चसका लग जाने से युधिष्ठिर ने शकुनि के साथ जुआ खेला । परन्तु, खेल में कुशल न होने के कारण वे अपना सारा राज्य हार गये। उस राज्य को दया करके हमने लौटा दिया। परन्तु, खेलने के व्यसन में वे अपने आपको कुछ ऐसा भूल गये कि वनवास की प्रतिज्ञा को दांव पर लगा कर फिर भी उन्होंने हार खाई। इसमें हमारा क्या दोष सेनासामग्री आदि एकत्र करते ही क्यों उन्होंने हमें अपना शत्र सममना प्रारम्भ किया? क्या वे यह श्राशा रखते हैं कि इस तरह हम डर जायेंगे हम तो ऐसा एक भी क्षत्रिय नहीं देखते जो हमारे साथ युद्ध करके जीत जाय। पाण्डवों की तो बात ही नहीं- भीष्म, द्रोण और कर्ण को इन्द्र आदि देवता भी जीतने में समर्थ नहीं हो सकते । कुछ भी हो, हम क्षत्रिय हैं; इससे शत्र के सामने सिर नीचा करने की अपेक्षा लड़ाई के मैदान में वीरों के योग्य शय्या पर सोना ही हम अधिक अच्छा समझते हैं। हमारे लड़कपन ही में पिता ने हमारी इच्छा के विरुद्ध पाण्डवों को हमारे फा०२४
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