दूसरा खण्ड] शान्ति की चेष्टा गान्धारी ने कहा :-- महाराज ! इस आपदा का कारण आप ही की दुर्बलता-आप ही की कमजोरी--मालूम होती है। आप इस बात को अच्छी तरह जानते रहे हैं कि दुर्योधन महापाप-परायण है । फिर क्यों आप अब तक बराबर उसका कहना करते आये हैं ? अब इस समय उसे जबरदस्ती रोकना आपकी शक्ति के बाहर है। इसके बाद माता की आज्ञा से दुर्योधन फिर सभा में आकर उपस्थित हुए । उनके आने पर गान्धारी ने उनकी बड़ी निन्दा की। वे बोली :- बेटा दुर्योधन ! काम और क्रोध के वश होने से तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है । इसी से तुम गुरुजनों का कल्याणकारी उपदेश नहीं सुनते । किन्तु, हे पुत्र ! जब तुम अपनी अधर्म-बुद्धि ही को नहीं जीत सकते तब राज्य जीतने या राज्य की रक्षा करने की तुम किस तरह आशा कहते हो ? बेटा ! तुमने आज तक पाण्डवों के साथ जो बुरा व्यवहार किया है-उनको जो तुमने नाना प्रकार की पीड़ा पहुँचाई है-उसका प्रायश्चित्त उन्हें उनका राज्य देकर कर डालो। तुम समझते हो कि युद्ध होने पर भीष्म, द्रोण आदि महात्मा सब तरह तुम्हारी ही तरफ रहेंगे। परन्तु, यह बात कभी नहीं हो सकती। पाण्डवों का भी राज्य में हक़ है और अत्यन्त धमात्मा होने के कारण सब लोग उन्हीं को अधिक चाहते हैं । जो लोग तुम्हारे अन्न से पले हैं वे युद्ध में तुम्हारे लिए प्राण दे सकते हैं। परन्तु, पाण्डवों के खिलाफ कभी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते । इसलिए, हे पुत्र ! सन्धि-स्थापन करके सबकी रक्षा करो और पाण्डवों के साथ मेल करके सुखपूर्वक रहो। माता की बात समाप्त होने पर दुष्ट दुर्योधन ने कुछ भी उत्तर न दिया । फिर भी वह सभा छोड़ कर चला गया; और कर्ण, शकुनि तथा दुःशासन के साथ चुपचाप सलाह करने लगा। उसने कहा :-- कृष्ण ने जब हम लोगों को कैद करने का प्रस्ताव किया है तब हम लोग भी धर्म से उन्हें कैद कर सकते हैं। ऐसा करने से पाण्डवों का सारा उद्योग धूल में मिल जायगा। दुर्योधन की यह सलाह सात्यकि को मालूम हो गई। कृतवर्मा के साथ वे सभा से तुरन्त ही उठ गये । बाहर सभा के दरवाजे पर आकर उन्होंने यादवों की फौज को, जरूरत पड़ने पर, लड़ने को तैयार रहने के लिए सावधानतापूर्वक सूचना कर दी। इसके बाद वे फिर सभा में लौट गये और सब बातें कृष्ण के कान में कह दी। तब कृष्ण ने, सबके सामने, धृतराष्ट्र से कहा :- महाराज ! सुनते हैं, दुर्योधन हमें जबरदस्ती कैद कर लेने का विचार कर रहे हैं। परन्तु, श्राप लोग हमारी सबलता-निबलता को अच्छी तरह जानते हैं । अतएव, श्राप यह सहज ही जान सकेंगे कि कौन किस को कैद कर सकता है। खैर, कुछ भी क्यों न हो, आप लोग डरिएगा नहीं । हम दूत होकर आये हैं। इसलिए दूत-धर्म छोड़ कर हम किसी को दण्ड नहीं देना चाहते । हमें अब सारी व्यवस्था मालूम हो गई है । हमने अच्छी तरह जान लिया है कि आप स्वाधीन नहीं और दुर्योधन को सन्धि करना मंजूर नहीं। यह सब हाल युधिष्ठिर से कह कर ही हम अपने कर्तव्य से मुक्त हो जायेंगे हम अपना फर्ज़ अदा कर चुकेंगे। इसके आगे हमें और कुछ भी करना न होगा। अब हम आप लोगों का अभिवादन करते हैं । लीजिए, हम चले। यह कह कर महात्मा कृष्ण बाहर निकल आये और रथ पर सवार होकर अपनी बुआ कुन्ती से बिदा होने चले । उन्होंने कुन्ती से सारा हाल कहा । वे बोले :- देवी ! दुर्योधन का बड़ा बुरा हाल है। इस संसार में उसके दिन अब गिने हुए हैं। तुम्हें अपने पुत्रों को यदि कुछ कहना हो तो कहो। हम सुनना चाहते हैं।
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