दूसरा खण्ड ] युद्ध जारी २२३ इससे, इस समय एक और सेनापति नियत करना सबसे पहला काम होना चाहिए। बिना पतवार के नाव और बिना सारथि के रथ की तरह, बिना सेनापति के एक पल भर भी सेना नहीं रह सकती। श्रतएव, हमारे बड़े बड़े योद्धाओं में से कौन योद्धा भीष्म के बाद सेनापति होने योग्य है, इस बात का तुम्हें वचार करना चाहिए। कर्ण बोले :-महाराज ! इस समय जो महात्मा यहाँ उपस्थित हैं वे सभी महाबली, महा- पराक्रमी और युद्ध-सम्बन्धी बातों के जाननेवाले हैं। इससे, सभी सेनापति होने की योग्यता रखते हैं । किन्तु, ये लोग परस्पर एक दूसरे के साथ स्पर्धा रखते हैं-ये इस बात को नहीं देख सकते कि और कोई उनसे किसी बात में बढ़ जाय । इससे, इनमें से यदि किसी एक को सेनापति का पद दिया जायगा तो बाक़ी के सब योद्धा जी लगा कर युद्ध न करेंगे। अतएव, किसी ऐसे पुरुप को सेनापति बनाना चाहिए जिसमें कोई विशेष गुण हो । हमारी समझ में धनुप धारण करनेवालों में सबसे श्रेष्ठ, और जितने योद्धा हैं सबके आचार्य, महात्मा द्रोण को सेनापति करना चाहिए । वे शुक्र और बृहस्पति के समान तेजस्वी हैं । उन्हें सेनापति बनाने से सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक उनकी आज्ञा मानेंगे। कर्ण की बात सुन कर सेना के बीच में खड़े हुए द्रोणाचार्य से राजा दुर्योधन ने कहा :- हे श्राचार्य ! आप सर्व-पूज्य ब्राह्मण हैं; जन्म भी आपने बड़े ही विमल वंश में पाया है; बुद्धि, वीरता और चतुराई में भी आप सबसे श्रेष्ठ हैं। इससे, इन्द्र जैसे देवताओं की रक्षा करते हैं वैसे ही आप हमारी रक्षा करें। आप सेनापति होकर, देवताओं के आगे स्वामि-कार्तिक की तरह, हमारे आगे आगे चलें। दुर्योधन की बात समाप्त होते ही राजा लोगों ने सिंहनाद करके, दुर्योधन की प्रसन्नता को बढ़ाते हुए, द्रोणाचार्य का जयजयकार किया। सैनिकों का आनन्दसूचक कोलाहल बन्द होने पर द्रोण ने सेनापति का पद स्वीकार करके कहा :-- ___ हे दुर्योधन.! शत्रुओं को जीतने की इच्छा से तुमने हममें जिन गुणों का होना बतलाया उन्ह हम युद्ध में सार्थक करने की चेष्टा करेंगे। इसके अनन्तर द्रोणाचार्य को सेनापति के पद पर नियत करने का मङ्गल-कार्य, अर्थात् अभि- षेक आदि हो चकने पर कौरवों ने फिर बाजे और शह बजा कर हर्ष प्रकट किया। परायाह और स्वस्ति- वाचन हुआ। ब्राह्मणों ने वेद-पाठ किया। बन्दीजनों ने स्तुतिगान किया। द्विजों ने जयजयकार किया। सेनापति नियत होने पर द्रोणाचार्य का, इस प्रकार, बहत अच्छी तरह सत्कार किया गया। सेनापति का पद प्राप्त होने पर महारथी द्रोणाचार्य ने सैनिकों के सामने दुर्योधन से कहा :- महाराज ! कौरवों में श्रेष्ठ भीष्म के बाद ही हमें सेनापति बना कर आपने हमारा जो इतना आदर किया उसके बदले, कहिए, हम आपका कौन सा अभिलषित काम करें। कर्ण और दुःशासन आदि से सलाह करके राजा दुर्योधन ने कहा :- ___ हे आचार्य्य ! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं तो रथियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर को जीता पकड़ कर हमारे पास ले आइए । यही हमारी प्रार्थना है। द्रोण ने कहा :-युधिष्ठिर को धन्य है, क्योंकि आप भी उनकी मृत्यु की कामना नहीं करते । यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि आप उनके शत्र होकर भी उनका वध न करके, सिर्फ उन्हें पकड़ने की इच्छा रखते हैं। धर्मराज सचमुच ही अजात-शत्रु हैं-सचमुच ही उनका शत्रु आज तक नहीं पैदा हुआ। तब दुर्योधन ने अपने मन की बात खोल कर इस प्रकार कही :-
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