पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२५५

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युद्ध जारी दूसरा खण्ड] २२५ सेना को कपाने लगे । ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, सेनापति, द्रोणाचार्य ने देखा कि कौरव लोग बे-तरह घबरा रहे हैं। इससे पहले तो उन्होंने उन्हें धीरज देकर कहा कि डरने की कोई बात नहीं; घबराओ मत। फिर क्रोध से लाल होकर वे पाण्डवों की सेना में कूद पड़े और युधिष्ठिर के सामने हुए। उन्होंने देखते ही देखते युधिष्ठिर के चक्ररक्षक को मार गिराया; और जो लोग युधिष्ठिर की रक्षा के लिए थे उन्हें बेहद पीड़ित करके युधिष्ठिर के शरीर को सैकड़ों शरों से छेद दिया। इस समय सेना में यह खबर उड़ी कि राजा पकड़े गये । इससे चारों तरफ़ कोलाहल मच गया। अर्जुन उस समय दूर युद्ध कर रहे थे। उन्होंने भी यह कोलाहल सुना। सुनते ही वे वहाँ से चल दिये। रास्ते में उन्होंने शूरवीरों के हाथ, पैर, धड़, सिर आदि बहा ले जानेवाली रुधिर की नदी बड़ी जल्दी से पार की। फिर अपने रथ की भयानक घरघराहट से सारी दिशाओं को कँपा कर और कौरवों को बड़ी निर्दयता से मार भगा कर तुरन्त ही वे युधिष्ठिर के पास आ पहुँचे। उन्होंने उस समय इतनी बाण-वर्षा की कि पृथ्वी, आकाश, दिशा, विदिशा सब कहीं घोर अन्धकार छा गया-हाथ मारा न सूझने लगा। ___ इस समय धूल की चादर में छिपा हुआ सूर्य अस्ताचलगामी हुश्रा-सायङ्काल हो गया। अतएव द्रोण ने लाचार होकर अर्जुन के द्वारा परास्त की गई कौरव-सेना को युद्ध बन्द करने की आज्ञा दी। पाण्डव लोग भी प्रसन्न होकर विश्राम करने के लिये अपने अपने डेरों में गये। जब रात को शिविर में सेना चली गई तब दुर्योधन को देख कर मन ही मन लज्जित हुए द्रोण ने कहा :- ____ महाराज ! हमने पहले ही श्राप से कह दिया था कि युद्ध के मैदान में अर्जुन के रहते युधिष्ठिर को देवता तक नहीं पकड़ सकते । हम सबने मिल कर बहुत कुछ यत्न किया, पर अर्जुन ने हमारे सारे परिश्रम को व्यर्थ कर दिया। इससे यदि किसी हिकमत से अर्जुन हटा न दिये जायँगे तो युधिष्ठिर का पकड़ा जाना सम्भव नहीं। कोई वीर अर्जुन को युद्ध करने के लिए ललकारे और युद्ध के मैदान से दूर हटा ले जाय । ऐसा होने से उस वीर को परास्त किये बिना अर्जुन कभी न लौटेंगे। इसी अवसर में पाण्डवों की सेना के भीतर घुस कर हम युधिष्ठिर को पकड़ने का यत्न करेंगे। यह सुन कर त्रिगतराज ने दुर्योधन से कहा :- महाराज ! अर्जुन हम लोगों को हमेशा ही परास्त करता है-कभी हम लोग उससे नहीं जीतते। इस कारण हम सब हमेशा ही क्रोध की आग से जला करते हैं। इससे हमीं उसे युद्ध के लिए ललकारेंगे और मैदान के बाहर जाकर उसके साथ युद्ध करेंगे। वहाँ उसे युद्ध में लगा रख कर आपका हित-साधन करेंगे । जब तक हम अर्जुन के साथ युद्ध करें आप युधिष्ठिर को पकड़ लीजिएगा। इससे आपका हित और हमारा यश दोनों बातें होंगी। इसके अनन्तर विगतराज ने अपने पांचों भाइयों को बुलाया। उनके अधिकार में जो सेना थी वह भी इकट्ठी हुई। फिर उन्होंने आग को सामने रख कर, स्वर्गप्राप्ति की इच्छा से यह शपथ की कि जब तक शरीर में प्राण रहेंगे तब तक हम लोग अर्जुन के साथ युद्ध करेंगे। दूसरे दिन युद्ध छिड़ने पर त्रिगर्त लोगों ने अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा और ललकारते हुए दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। तब अर्जुन ने युधिष्ठर से कहा :- महाराज ! युद्ध के लिए ललकारे जाने पर हम युद्ध किये बिना नहीं रह सकते । हमें युद्ध करना ही पड़ता है। हमने यही नियम कर रक्खा है। इस समय, देखिए, त्रिगर्त लोग युद्ध के लिए हमें पुकार रहे हैं। इससे उनका नाश करने के लिए हमें आशा दीजिए। युधिष्ठिर बोले : हे अर्जुन ! महावीर द्रोणाचार्य ने हमारे सम्बन्ध में जो प्रतिज्ञा की है वह तो तुमने सुनी ही है। अतएव उसका कोई उपाय किये बिना युद्ध करने न जाना। फा०२९