पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२६६

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२३४ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड पुत्र के शोक से अर्जुन को बहुत ही व्याकुल देख कृष्ण ने उन्हें दिलासा देने के लिए कहा :- हे धनञ्जय ! इतने विकल मत हो । शूर-वीरों की ऐसी ही गति होती है; वे हमेशा यही इच्छा रखते हैं कि रण में प्राण छोड़ कर हम स्वर्ग जायँ । जिस दिव्य लोक के पाने की वीर जन कामना करते हैं, अभिमन्यु नि:सन्देह उसी लोक को प्राप्त हुए हैं । तुम्हारे भाई और बन्धु-बान्धव तुम्हें इतना शोक करते देख अत्यन्त दुःखित और सन्तप्त हो रहे हैं। इससे अब अधिक शोक न करके उन लोगों को शान्त करो। कृष्ण के वचन सुन कर अर्जुन ने बड़े कष्ट से पुत्र-शोक को कुछ कम करके कहा :- हे भाई ! उस सुन्दर-मुख और कमल-लोचन अभिमन्यु ने किस प्रकार युद्ध किया, सो वर्णन करो। अनेक शत्रओं के बीच युद्ध करके उस वीर-वर ने जितने वीरता के काम किये हों उन्हें हम सुनना चाहते हैं। इससे हमें बहुत कुछ धीरज होगा । हमने कभी स्वप्न में भी यह न समझा था कि तुम लोगों के रहते खुद देवराज इन्द्र भी अभिमन्यु का बाल बाँका कर सकते हैं। हाय ! यदि हम यह जानते कि पाण्डव और पाञ्चाल लोग हमारे पुत्र की रक्षा न कर सकेंगे तो हम खुद ही उसकी रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में उपस्थित रहते। इस समय तुम्हारे पौरुष और पराक्रम का हाल हमें अच्छी तरह मालूम हो गया। अभिमन्यु तुम्हारी आँखों के सामने ही मारा गया । सचमुच ही तुम बड़े बहादुर हो! अथवा इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सारा दोप हमारा ही है। क्योंकि अत्यन्त दुर्बल और डरपोक पुरुषों के भरोसे अभिमन्यु को छोड़ कर हम यहाँ से चले गये। तुम लोग यदि हमारे पुत्र की रक्षा न कर सके तो तुम्हारा यह कवच और तुम्हारे ये अस्त्र क्या सिर्फ शोभा के लिए हैं ? और तुम्हारी वाणी और बुद्धि क्या सभा में सिर्फ वक्तृता झाड़ने के लिए है ? ___पुत्र-शोक से दुखी अर्जुन ने, आँखों में आँसू भरे हुए, इस प्रकार कुछ देर तक विलाप करके अपने बन्धु-बान्धवों को धिक्कारा। फिर धनुष और तलवार उठा कर, बैठे बैठे, इस तरह जोर ज़ोर से साँस छोड़ने लगे जैसे क्रोध से भरा हुआ काला नाग फुफकारें छोड़ता है। उस समय युधिष्ठिर और कृष्ण को छोड़ कर और कोई भी उनकी तरफ़ देखने या उन्हें उत्तर देने को समर्थ न हुआ। धीरे धीरे धर्मराज ने बहुत धीमे स्वर से कहना प्रारम्भ किया :- हे महाबाहु ! त्रिगर्त लोगों के साथ युद्ध करने के लिए तुम्हारे चले जाने पर द्रोणाचार्य ने एक ऐसा व्यूह बनाया जिसका तोड़ना बहुत ही कठिन था। व्यूह की रचना करके हमारे पकड़ने के लिए उन्होंने जी जान से यत्न करना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि अनगिनत वीर हमारी रक्षा कर रहे थे तथापि द्रोण के धावे से हम बेहद तंग आ गये। शत्रुओं के उस व्यूह को तोड़ना तो दूर रहा, उनके सामने एक क्षण भर भी ठहरना हम लोगों के लिए असह्य हो गया । तब हमने अद्भुत वीर अभिमन्यु से कहा:- बेटा ! द्रोणाचार्य की सेना के भीतर प्रवेश करो; हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। निडर अभिमन्यु ने हमारे कहने के अनुसार उस विकट काम को अपने ऊपर लेने से, उत्तम घोड़े की तरह, जरा भी आनाकानी न की । बड़े वेग और बड़े उत्साह से वह द्रोण की सेना के भीतर घुस गया। हम लोग. अभिमन्यु के पीछे पीछे चले और उसी की तरह शत्रुओं की सेना के भीतर घुसने की चेष्टा करने लगे। परन्तु, उसी समय जयद्रथ ने, रुद्र होकर भी, शङ्कर के वरदान के प्रभाव से हम लोगों को रोका और अभिमन्यु के द्वारा तोड़े गये व्यूह का द्वार बन्द कर दिया।