पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३८ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड असंख्य रथी, हाथी और पैदल सेना काट डाली। इससे कौरवों के योद्धाओं का उत्साह टूट गया और वे भागने लगे। अपने भाई दुर्मर्षण के ब्रिगेड की यह दशा देख दुःशासन ने बड़ा कोप किया। वे अजुन का सामना करने आये और हाथियों पर सवार सेना से उन्हें घेर लिया। उस समय दुःशासन के शरीर को बाणे से छिन्न भिन्न करके, ऊँची ऊँची लहरों से लहराते हुए महासागर के समान शत्रुओं की सेना में क्षत्रिय-श्रेष्ठ अर्जुन घुस पड़े और हाथियों पर सवार सैनिकों के सिर अपने तीक्ष्ण शरों से छेद छेद कर गेंद की तरह फेंकने लगे। कुछ ही देर में कितने ही हाथियों के हौदे खाली हो गये और कितने ही हाथी खुद भी ज़मीन पर गिर गिर कर मर गये । बिना सवारों के खाली हौदेवाले हाथी इधर उधर सेना में दौड़ने लगे। यह दशा देख बची हुई सेना ने फिर भागने की ठानी। अर्जुन के शरों से घायल हुए दुःशासन ने भी द्रोण के द्वारा रक्षित व्यूह में घुस कर अपने प्राण बचाये । तब अजुन उस शकटाकार व्यूह के द्वार पर जा पहुँचे। वहाँ उनका और आचार्य द्रोण का सामना हुआ। अर्जुन ने द्रोणाचार्य से 'उस व्यूह के भीतर घुसने की अनुमति बड़ी ही अधीनता से माँगी। उन्होंने आचार्य से विनती की कि-हे गुरु महाराज ! हमें इस व्यूह के भीतर घुस जाने दीजिए । पर आचार्य ने हँस कर कहा :-- हे अर्जुन ! पहले हमें जीते बिना तुम जयद्रथ के पास तक कदापि नहीं पहुँच सकते । यह कह कर द्रोण ने अपने तीक्ष्ण शरों से अजुन को तोप दिया। तब लाचार होकर अर्जुन को गुरु के साथ युद्ध करना पड़ा। युद्ध-विद्या में गुरु जैसे प्रवीण थे चेले भी वैसे ही थे। दोनों की फुरती, चालाकी और हाथ की सफाई तारीफ़ के लायक थी। दोनों ही एक दूसरे को अपना अपना युद्ध-कौशल दिखाने लगे। दोनों ही ने परस्पर एक दूसरे के अस्त्रों शस्त्रों को व्यर्थ करना और धनुष की डोरियों को काटना प्रारम्भ कर दिया। बहुत देर तक बड़ा ही अद्भुत युद्ध हुआ। श्री ष्णजी तो बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने देखा कि द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करने में समय व्यर्थ जा रहा है। इससे आज के जयद्रथ-वध रूपी मुख्य काम को ध्यान में रख कर उन्होंने अर्जुन से कहा :- हे महाबाहु ! अब और वक्त खोना उचित नहीं। आचार्य के साथ बहुत देर तक युद्ध हो चुका । अब उन्हें यहीं छोड़ व्यूह के भीतर घुसना चाहिए। अर्जुन ने कृष्ण की बात मान ली । तब कृष्ण ने बड़ी तेजी से रथ हाँका और द्रोणाचार्य की प्रदक्षिणा करके रथ उनके पीछे निकाल ले गये । अर्जुन के रथ को आगे बढ़ने से रोकना द्रोणाचार्य ने अपनी शक्ति के बाहर समझा। इससे अर्जुन को व्यूह की तरफ़ बड़ी तेजी से जाते देख द्रोण ने कहा :- हे अर्जुन ! तुम तो शत्र को हराये बिना कभी नहीं लौटते ! अब, इस समय, कहाँ भागे जा रहे हो ? अर्जन तो जयद्रथ को मारने के लिए उतावले हो रहे थे। उन्होंने कहा :- हे आचार्य्य ! आप हमारे गुरु हैं, शत्रु नहीं; इससे हमारा वह नियम आपके विषय में नहीं लग सकता। यह कह कर युधामन्यु और उत्तमौजा नामक दो चक्ररक्षक लेकर उन्होंने शत्रुओं की विशाल सेना में प्रवेश किया।