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२६६ मचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड न बच सकोगे । अतएव, हे कुरुराज ! तुम आज्ञा दो तो हम अर्जुन से युद्ध बन्द करने के लिए प्रार्थना करें । हमें विश्वास है, वे निश्चय ही हमारी बात मान लेंगे। यह सुन कर दुर्योधन कुछ देर तक मन ही मन विचार करते रहे । उसके अनन्तर उन्होंने कहा : ____मित्र ! जो बात तुमने कही वह जरूर सच है। किन्तु सिंह की तरह भीमसेन ने दुःशासन को मार कर जैसी बातें कही हैं वे तुमसे छिपी नहीं हैं। फिर किस प्रकार हम युद्ध बन्द कर सकते हैं ? कर्ण की भी बहुत दिन से यह इच्छा थी कि अपने सामने रथ पर बैठ कर अर्जुन से युद्ध करें । सेो वह समय अब आ गया है । इससे उन्हें इस युद्ध से रोकना उचित नहीं । हे गुरु-पुत्र ! डरने का कोई कारण हमें नहीं देख पड़ता। हवा का प्रचण्ड वेग जैसे मेरु पर्वत को नहीं गिरा सकता वैसे ही अर्जुन भी महावीर कर्ण को कभी नहीं परास्त कर सकते । इधर कर्ण और अर्जुन में महाघोर युद्ध जारी था। एक दूसरं का मारने में अपना सारा बलविक्रम और सारा अस्त्र-कौशल खर्च कर रहा था। धनुष का टङ्कार बार बार वज्रपात के समान हो रहा था। इतने में अत्यन्त अधिक खींची जाने के कारण अर्जुन के धनुष की डोरी महा भयानक शब्द करके तड़ाक से टूट गई। बाण चलाने में कर्ण के हाथ की सफाई और फुर्ती तारीफ के लायक थी । अर्जुन का धनुष बेकार हो गया देख कर्ण ने नाना प्रकार के अनगिनत बाणों से अर्जुन को तोप दिया। जो योद्धा अर्जुन की रक्षा करते थे उन्होंने उनके पास आकर बहुत कुछ चेष्टा की, परन्तु कर्ण के बाणों को वे काट न सके । फल यह हुआ कि कृष्ण और अर्जुन दोनों बे-तरह घायल हुए । उनके शरीर लोहू से लद फद हो गये। यह दशा देख, कौरवों ने समझा. हमारी जीत हुई । इससे वे लोग आनन्द-ध्वनि और सिंहनाद करने लगे। इस पर महावीर अर्जुन के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने धनुष को झुका कर फिर उस पर डोरी चढाई और कर्ण के सारे बाणों को व्यर्थ कर दिया। उनके अस्त्रों से यहाँ तक आकाश-मंडल परिपूर्ण हो गया कि पक्षियों के उड़ने के लिए भी जगह न रह गई। अर्जुन के वज्र-तल्य बाणों ने कर्ण की दुर्गति कर डाली। अपने लोगों में से कितनों ही को मरते देख, उनके रक्षकों ने भागना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु रक्षकों के भाग जाने पर भी कर्ण निडर होकर अर्जुन पर आक्रमण करने लगे। इस प्रकार बल, वीर्य, पराक्रम और युद्ध-कौशल के प्रभाव से कभी कर्ण अर्जुन से बढ़ गये, कभी अर्जुन कर्ण से। बहुत देर तक युद्ध करके भी जब कर्ण ने देखा कि अर्जुन से किसी तरह पार नहीं पा सकते, उलटा उनके धनुष से छूटे हुए शरों से हमी घायल हो रहे हैं, तब बहुत दिन से यनपूर्वक रक्खे हुए विष के बुझे उस नागास्त्र की उन्हें याद आई । अर्जुन का मस्तक छेदने के लिए उसी ज्वाला के समान कराल शर को धन्वा पर रख कर उन्होंने जोर से खींचा। मद्रराज शल्य ने देखा कि अर्जुन पर अब घोर विपद आना चाहती है । इससे उन्होंने चाहा कि कर्ण को दुचित्ता करके निशाने को चुका दें। इसी मतलब से वे कहने लगे : हे कर्ण! यह शर कभी अर्जुन का सिर न काट सकेगा । अतएव और कोई इससे अच्छा शर निकाल कर धनुष पर चढ़ाओ। ___कर्ण ने कहा :-हे शल्य ! एक शर धनुष पर रख कर उसे छोड़े बिना कर्ण कभी दूसरा शर हाथ से नहीं छूते। यह कह कर, बहुत वर्षों से जिसकी उन्होंने पूजा की थी उस भयङ्कर शर को उन्होंने उसी क्षण छोड़ दिया और कहा :