२७४ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड कौरव-सेना पर भीम और अर्जुन दोनों एक ही साथ टूट पड़े। कुछ ही देर में वह सारी की सारी सेना मारी गई। दो चार मनुष्यों को छोड़ कर समुद्र के समान लम्बी चौडी उस ग्यारह अक्षौहिणी सेना में से कोई भी योद्धा उस समय युद्ध-भूमि में जीता न रहा। गजों में से अकेले दुर्योधन जीते रह गये। उन्हें इस ममय दसों दिशाये सूनी देख पड़ने लगी। पाण्डवों की आनन्द-ध्वनि और अपनी यह गति देख युद्ध के मैदान से भाग जाना ही उन्होंने अपने लिए अच्छा समझा । अतएव, सिर्फ एक गदा हाथ में लेकर, विदुर का उपदेश याद करते करते, और मन ही मन चिन्ता के समुद्र में डूबते उतराते, वे पैदल ही पूर्व की तरफ़ चले । एक बहुत बड़े तालाब में उनका तैयार कराया हुआ पानी का एक स्तम्भ था। उसी में छिप रहने के इरादे से वे दौड़े । इस समय युद्ध का मैदान कौरवों के पक्ष के लोगों से बिलकुल ही खाली था। ऐसे कौरव शून्य मैदान से सञ्जय घर जा रहे थे। राह में उन्हें अचानक दुर्योधन देख पड़े। दुर्योधन की उस समय बुरी दशा थी। वे बेहद घबराये हुए थे। उसी दशा में वे सञ्जय के पास आये और उनके शरीर पर बार बार हाथ रख कर बड़ी बड़ी आँखों से उन्हें देख देख कहने लगे :- हे सञ्जय ! इस समय तुम्हें छोड़ कर अपने पक्ष के किसी मनुष्य को हम जीता नहीं देखते । हमारं भाइयों की और हमारी सेना की क्या दशा हुई, सो मालूम है ? सञ्जय ने कहा :-महाराज ! आपके भाई श्रापकी सारी सेना-समेत मारे गये, यह हमने अपनी आँखों देखा है । सुना है कि कौरवों के पक्ष के सिर्फ तीन आदमी जीते बचे हैं। दुर्योधन ने लम्बी साँस खींच कर कहा :- हे सञ्जय ! पिता से कहना कि आपका पुत्र दुर्योधन बे-तरह घायल होकर समर-भूमि से चला आया है और तालाब में छिप कर प्राण-रक्षा कर रहा है। हाय ! हाय ! बिना बन्धु-बान्धवों के होकर अव हम किस तरह जीवन धारण कर सकेंगे। कुरुराज दुर्योधन यह कह कर पास ही तालाब के किनारे गये और उसके बीच में बने हुए जल-स्तम्भ के भीतर घुस कर वहीं छिप रहे। कुछ ही देर में घायल कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृत- वर्मा अपने थके हुए घोड़ों-समेत वहीं आ पहुँचे। उन्होंने सञ्जय को दूर से देखते ही बड़े वेग से घोड़े दौड़ाये और सञ्जय के पास आकर उनसे बोले :- हे सञ्जय ! हमारे बड़े भाग्य थे जो आज हमने तुम्हें जीता देखा। कहिए हमारे राजा दुर्योधन का क्या हाल है । जीते तो हैं ? तब सञ्जय ने दुर्योधन के तालाब में छिप रहने की बात कही । दुर्योधन की यह गति हुई सुन सब लोगों ने बड़ी देर तक विलाप किया। फिर सञ्जय को कृतवर्मा के रथ पर सवार करा कर उन्हें शिविर में भेज दिया। कौरव-सेना का संहार हो गया देख धृतराष्ट्र के पुत्र युयुत्सु सोचने लगे :- महाबली और महापराक्रमी पाण्डवों ने दुर्योधन को हरा कर बचे हुए कौरव-वीरों और हमारे भाइयों को मार डाला। इस समय भाग्य से अकेले हमीं जीवित हैं। डेरों में जितने नौकर- चाकर थे सभी भाग गये हैं । इससे राज-त्रियों को साथ लेकर इस समय हमें हस्तिनापुर लौट जाना चाहिए। यह सोच कर युयुत्सु युधिष्ठिर के पास गये और उनसे अपने मन की बात कही । युधिष्ठिर तो बड़े दयालु थे। उन्होंने युयुत्सु को हृदय से लगा कर उसी क्षण बिदा किया। युयुत्सु ने राज-स्त्रियों
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