पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३१७

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दूसरा खण्ड]
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युद्ध की समाप्ति

मामा ! जिनके लिए हम लोग युद्ध में शरीक हुए उन्हीं महाबली दुर्योधन को नीच भीमसेन ने आज बड़ी ही निर्दयता से मार कर उनका अपमान किया है। यह सुनो, जीत से फूले हुए पाञ्चाल लोगों का सिंहनाद, शङ्ख आदि बाजों की ध्वनि, और हँसी-दिल्लगी की बातें हवा के जोर से दसों दिशाओं में दूर दूर तक सुनाई देती हैं । इस समय कौरवों के पक्ष में हम लोग केवल तीन आदमी जीते हैं । अतएव, मोह के कारण यदि तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट न हो गई हो तो इस बात का निश्चय करो कि इस समय हमें क्या करना चाहिए। कृपाचार्य ने कहा :--बेटा ! हमने तुम्हारी बात सुन ली; अब तुम हमारी बात सुना ! दुर्योधन नं दूर तक सोच कर काम नहीं किया। जिन लोगों ने उसे उसी के भल के लिए हितोपदेश किया उनका तो उसने निरादर किया, और जो महामूर्ख और निर्बुद्धि थे उनका कहना मान कर मर्वगुण-सम्पन्न पाण्डवों के साथ व्यर्थ वैर मोल लिया। इसी से वह माग गया और आज उसकी यह गति हुई । उस पापी के कहने के अनुसार काम करन ही से आज हमारी भी यह दुर्दशा हुई । दुःख के मारे इस समय हमारी बुद्धि ठिकाने नहीं; इससे हम अच्छी सलाह देन में असमर्थ हैं। जो मनुष्य मोह से अन्धा हो रहा हो उसे चाहिए कि वह अपने इष्ट मित्रों से मलाह ले। अतएव चलिए हम लोग धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुर से उपदेश देने के लिए प्रर्थना करें । यह सुन कर अश्वत्थामा क्रोध की आग से जल उठे । वे कहने लगे : ... ह दोनों वीर ! जितने मनुष्य हैं सबकी बुद्धि जुदा जुदा तरह की होती है। सभी अपनी अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ समझते हैं और उसी के अनुसार वे काम भी करने को लाचार होते हैं। हमने अपनी बुद्धि का हाल आपसे कह सुनाया । हमारी समझ में उसके अनुसार कार्रवाई करने ही से हमारा शोक दूर होगा। शत्रओं के डेरों में घुस कर और पाण्डवों का प्राण लेकर आज हम शान्तिलाभ करेंगे। पाञ्चाल लोगों को मार कर आज हम पिता के ऋण से छूट जायँगे। ___ अश्वत्थामा को अपनी बात पर इस प्रकार दृढ़ देख कृपाचार्य उन्हें धर्म-मार्ग में लाने का बार बार यत्न करने लगे । बं बोले :...... ____बेटा ! वैर का बदला लेने के लिए तुम अपनी प्रतिज्ञा से जो नहीं हटना चाहते, यह सौभाग्य की बात है; किन्तु शरीर से कवच खोल कर और हथियार रख कर इस समय थकावट तो दूर कर लो। रात भर यहाँ विश्राम करो। कल हम तीनों एक ही साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करेंगे । हम सच कहते हैं, कल पाञ्चाल लोगों का नाश किये बिना हम युद्ध के मैदान से कदापि लौटने के नहीं। तब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने फिर क्रोध से आँखें लाल लाल करके कृप की ओर देखा और कहा :- मामा ! पिता की मृत्यु की बात याद करके हमाग हृदय दिन रात जला करता है । फिर, जंघा तोड़ी जाने के कारण ज़मीन पर व्याकुल पड़े हुए दुर्योधन ने हमारे सामने जैसा विलाप किया है उसे सुन कर किसकी छाती न फटेगी ? नब, कहिए, आज रात का हमें निद्रा कैसे आ सकती है और विश्राम भी हम कैसे ले सकते हैं ? अर्जुन और कृष्ण के द्वारा पाण्डवों की रक्षा होने से ग्वुद इन्द्र भी उन्हें नहीं जीत सकते। इससे हमने जो बात करने का निश्चय किया है उसे छोड़ कर और कोई उपाय नहीं। कृपाचार्य ने कहा :-अपन आत्मीय को- अपने मित्र को पाप-कर्म करतं देवि चुप नहीं रहा जाता। इससे हे द्रोण-पुत्र ! हमारी बात सुनो । क्रोध का गेक कर जो तुम हमारी बात न मानांग तो तुम्हें पीछे से पछताना पड़ेगा। सब लोग जानते हैं कि तुम युद्ध-विद्या में बड़े निपुण हो। इससे प्रात:काल होने पर कल तुम सबके देखते शत्रओं को जीतना । आज तक तुमने रत्ती भर भी पाप नहीं