३०६ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड हुआ है। चारों ओर जल से भरे हुए घड़े रक्खे हैं। जगह जगह पर घी रक्खा है । तेंदू की लकड़ी जल रही है । सरसों बतनों में भरे हुए रक्खे हैं। धारदार हथियार भी कई जगह पर रक्खे हुए है । राक्षसों की विन-बाधा दूर करनेवाला यह सामान देख कर कृष्ण आगे बढ़े तो उन्होंने देखा कि कई जगह भाग दहक रही है और बूढ़ी स्त्रियाँ तथा चिकित्सा करने में चतुर वैद्य वहाँ बैठे हैं। कृष्ण को देखते ही सब लोग करुण स्वर से विलाप करने लगे। विराट की पत्री उत्तरा जमीन पर लोट गई और उनके पैर पकड़ कर रोने लगी। यह दशा देख कर महात्मा कृष्ण को बड़ी दया आई; वे जोर से कहने लगे :- हम कभी युद्ध से नहीं भागे; धर्म और ब्राह्मणों के हम सदा से भक्त हैं; प्रिय बन्धु अर्जुन से हमने कभी विरोध नहीं किया; केशी और कंस को हमने धर्मानुसार मारा है; सत्य और धर्म का हम सदा पालन करते हैं । इसलिए इन सब पुण्यों के प्रभाव से अभिमन्यु का पुत्र शीघ्र ही जी उठे। उनकी बात पूरी होते ही उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ वह बालक चेत में आकर हिलने डुलने लगा। जल में डूबता हुआ आदमी नाव पाकर जैसे प्रसन्न होता है वैसे ही कुन्ती, द्रौपदी और सुभद्रा आदि स्त्रियाँ अत्यन्त आनन्दित होकर कृष्ण की प्रशंसा करने लगीं । सूत और मागधों ने भी कृष्ण की यथोचित स्तुति की। इसके बाद उत्तरा ने यथा समय उठ कर पुत्र-सहित बड़ी प्रसन्नता से कृष्ण को प्रणाम किया। तब महात्मा कृष्ण और दूसरे यादवों ने प्रसन्न होकर उस बालक को तरह तरह के बहुमूल्य रत्न देकर कहा:- ___ इस बालक ने वंश के क्षीण होने के समय जन्म लिया है। इसलिए इसका नाम परीक्षित रक्खा जाय। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह वह बालक धीरे धीरे बढ़ने लगा। इससे हस्तिनापुरवासियों को बड़ा आनन्द हुआ। परीक्षित के पैदा होने के एक महीने बाद पाण्डव लोग वह धन-राशि लेकर हिमालय से लौटे। यह खबर पाते ही कि वे नगर के निकट आये हैं, यादव लोग उनकी अगवानी के लिए चले । ध्वजा, पताका और मालाओं से नगर सजाया गया और धनवान् पुरवासियों ने अपने अपने घर सजाये । महात्मा विदुर ने पाण्डवों के कल्याण के लिए सारे देव-मन्दिरों में पूजा करने की आज्ञा दी । उधर यादववीरों से मिल कर युधिष्ठिर आदि ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उनका यथोचित सत्कार किया। तदनन्तर उनके साथ उन्होंने नगर में प्रवेश किया। सिपाहियों के चलने के शब्द, रथ के पहियों की घरघराहट और चलते फिरते आदमियों के कोलाहल से पृथ्वी और आकाश दोनों गूंज उठे। इस तरह पाण्डव लोग उस धन-राशि को लेकर नगर में पहुँचे। पहले तो उन्होंने अपना अपना नाम लेकर धृतराष्ट्र के पैर छुए; फिर गान्धारी और कुन्ती को प्रणाम करके विदुर, युयुत्सु आदि का यथोचित सम्मान किया। इसके बाद परीक्षित के पैदा होने और कृष्ण के द्वारा उनके जिलाये जाने का हाल सुन कर वे लोग बड़े आनन्द से कृष्ण की बार बार प्रशंसा करने लगे। कुछ दिन बीतने पर महर्षि व्यास हस्तिनापुर आये । कौरवों और यादवों ने नियमानुसार पाद और अर्ध्य से उनकी पूजा की । तदनन्तर युधिष्ठिर ने कहा :- भगवन् ! आपकी कृपा से जो धन हम लोग ले आये हैं उसे शीघ्र ही अश्वमेध यज्ञ में खर्च करना चाहते हैं । इसलिए आप इस बात की आज्ञा दीजिए। वेदव्यास ने कहा :-राजन् ! तुम शीघ्र ही अश्वमेध यज्ञ करो। तब युधिष्ठिर ने शिष्टाचार दिखा कर कृष्ण से कहा :-
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