पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४९

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दूसरा खण्ड ] परिणाम ३१७ वृद्ध राजा के इस तरह करुणस्वर से विनती करने पर पुरवासी तथा प्रजाजन बड़े शोकातुर हुए। कोई हाथ से, कोई डुपट्टे से मुंह ढक कर फिर रोने लगा। कुछ देर बाद शोक के वेग को रोक कर उन लोगों ने अपना अभिप्राय शाम्ब नाम के एक बातूनी ब्राह्मण को समझा दिया और कहा :- महाशय ! कृपा करके आप हम लोगों के अभिप्राय को महाराज से कह दीजिए। तब वह वाक्यविशारद ब्राह्मण आगे बढ़ कर धृतराष्ट्र से कहने लगे :- महाराज ! आपके महामान्य पूर्वजों ने जैसे राज्य किया था वैसे ही आपके पुत्र दुर्योधन ने भी किया। उन्होंने हम लोगों का कोई अनिष्ट नहीं किया । आपकी भी कृपा हम पर सदा रही है। उसके कारण हम लोगों ने बड़े सुख से समय बिताया है । इस समय हम लोग और क्या कहें ? धर्मपरायण महात्मा वेदव्यास आपको जैसा उपदेश दे गये हैं आप वैसा ही कीजिए । पर इसमें सन्देह नहीं कि आपके दर्शन न पाने से हम लोग बड़े व्याकुल होंगे। आपके गुण हमारे अन्त:करण से कभी दूर न होंगे। कुलक्षय का दोष दुर्योधन पर लगाना ठीक नहीं । उस विषय में आप लोगों में से किसी का अपराध नहीं । दैव का कोई नहीं मेट सकता। दैवयोग से ही कौरवों का नाश हुआ है। भाइयों सहित महाराज दुर्योधन वेदों में कहा गया दुर्लभ स्वर्ग-सुख भोगें। आप भी तपस्या करके सनातन-धर्म का ज्ञान प्राप्त कीजिए । पाण्डवों के या हम लोगों के लिए आप चिन्ता न कीजिए । ये महात्मा चाहे अच्छी दशा में हों चाहे बुरी में, प्रजाजन सदा ही इनके वश में रहेंगे। हमें विश्वास है कि प्रजाजनों के अधर्मी होने पर भी पाण्डव लोग उनका पालन धर्मानुसार ही करेंगे। इसलिए आप दुःख न कीजिए । प्रसन्न-मन आप धम्मोनुष्ठान कीजिए। ___ जब महामति शाम्ब ये बातें कह चुके तब बार बार धन्यवाद देकर प्रजा ने उनकी बात का अनुमोदन किया। प्रजा का अभिप्राय जान कर धृतराष्ट्र ने उनकी बातों का यथोचित अभिनन्दन किया और गान्धारी के साथ अपने घर चले गये। दूसरे दिन सबेरे अन्धराज के भेजे हुए विदुर युधिष्ठिर के पास आकर बोले :- राजन् ! महाराज धृतराष्ट्र वन जाने के लिए तैयार हैं। कार्तिक की इसी पूर्णिमा को वे यात्रा करेंगे। इस समय युद्ध में मरे हुए भीष्म, द्रोण आदि वीरों का श्राद्ध करने के लिए कुछ धन माँगते हैं। यदि तुम्हारी सलाह हो तो वे साथ ही साथ सिन्धुराज जयद्रथ का भी श्राद्ध करना चाहते हैं । धृतराष्ट्र की इच्छा पूर्ण करने का सुयोग पाकर युधिष्ठिर ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी प्रार्थना स्वीकार की । अर्जुन ने भी खुश होकर उसका अनुमोदन किया। पर क्रोधी भीमसेन ने पहले का वैर याद करके सम्मति न दी। उन्होंने कहा:-हे अर्जुन ! महावीर भीष्म, द्रोण आदि बान्धवों का श्राद्ध हम खुद करेंगे। इसलिए धृतराष्ट्र को धन देने की आवश्यकता नहीं। हमारी समझ में दुर्योधन, जयद्रथ आदि कुलाङ्गारों का श्राद्ध करना आवश्यक नहीं । परलोक में उनको कष्ट भोगना ही उचित है । क्या तुम द्रौपदी के क्लेशों को भूल गये ? क्या तब भी तुम अपने बड़े चचा को स्नेह-दृष्टि से देखते थे ? ___ भीमसेन की ये क्रोधपूर्ण बातें सुन कर युधिष्ठिर ने उन्हें डाँटा और चुप रहने की आज्ञा दी। तब भीमसेन को शान्त करने के लिए अर्जुन कहने लगे :- हे श्रार्य्य ! तुम हमारे बड़े भाई और गुरु हो । हमें तुमको उपदेश देना शोभा नहीं देता। हमारा मतलब यह है कि धृतराष्ट्र हम लोगों के सब तरह पूज्य हैं । दूसरे की की हुई बुराइयों का नयाल न करके भलाइयों ही का स्मरण रखना चाहिए।