३१८ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड अर्जुन की बात सुन कर युधिष्ठिर ने उनकी प्रशंसा की और विदुर से बोले :- हे विदुर । धृतराष्ट्र से कहना कि पुत्रों और सम्बन्धियों के श्राद में वे जितना धन दान करना चाहें हमारे खजाने से ल लें । भीम इससे विरक्त न होंगे। धन की तो बात ही क्या है हमारा शरीर तक उनके अर्पण है। विदुर ने धृतराष्ट्र से श्रादि से अन्त तक सब बातें कह सुनाई। इससे धृतराष्ट्र युधिष्ठिर से बड़े सतुष्ट हुए । उसी दिन से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक अपने इच्छानुसार वे ब्राह्मणों को धन-दान करते रहे। इसके बाद जब ग्यारहवें दिन पूर्णमासी आई तब धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुला कर उन पर यथोचित प्रसन्नता प्रकट की और वेज्ञ ब्रह्मणों द्वारा हवन करा कर तथा छाल और मृगचर्म पहन कर गान्धारी के साथ अपने घर से निकले । यह देख और-हा पिता ! कहाँ चल-कह कर युधिष्ठिर जमीन पर गिर पड़े। अर्जुन भी बड़े दुखी हुए; बार बार ठंडी साँसें भर कर वे उ हें धीरज देने लगे। कौरव वंश की स्त्रियों के रोने से अन्त:पुर गूंज उठा। तब युधिष्ठिर आदि पाए उव, विदुर, सञ्जय, कृपाचार्य, धौम्य और बहुत मे अन्याय नगर- निवासी शोक के कारण रोते हुए धृतराष्ट्र के पीछे पीछे चले । कुती और आँखों में पट्टी बाँधे गान्धारी, अपने कंधों पर धृतराष्ट्र के दोनों हाथ रक्खे हुए, साथ साथ चली। द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा आदि गनियाँ जोर जोर से रोती हुई उनके पीछे दौड़ीं। चारों वर्ण की प्रजा उनको देखने के लिए चारों तरफ से राजमार्ग पर आने लगी। धृतराष्ट्र के राजपथ पर पहुँचते ही दोनों तरफ़ की अटारियों और अन्य स्थानों से स्त्रियों के रोने का कोलाहल सुनाई देने लगा। अन्धराज ने बड़े विनीत भाव से स्त्री-पुरुपों से भरे हुए उस राजमागे को पार किया । हस्तिनापुर के सदर फाटक से निकल जाने पर साथ आनेवाले लोगों को वे बिदा करने लगे। महावीर कृपाचार्य और युयुत्सु का धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर के हाथ में सौंप दिया। तब वे लौट चले । पर महात्मा विदुर और सजय किसी तरह न लौटे। उन्होंने उन्हीं के साथ वन जाने का निश्चय किया। जब धीरे धीरे नगर निवासी लौट गये तब धर्मराज युधिष्ठिर ने, बड़े चचा की आज्ञा के अनुसार, स्त्रियों को लौटने के लिए माता कुन्ती से कहा :- माता ! तुम बहुओं के साथ नगर लौट चलो। धर्मात्मा धृतराष्ट्र ने तपस्या करने का निश्चय कर लिया है; इसलिए अब वनवास करना ही उनका कर्तव्य है । यह बात सुन कर कुन्ती के आँसू आ गये। उन्होंने गान्धारी को पकड़ कर चलते चलते ही उत्तर दिया :-- बेटा । तुम भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव की रक्षा सदा करते रहना और द्रौपदी को कभी अप्रसन्न न करना । आज से कुरुवंश का सव भार तुम्हारे ही ऊपर है। मूर्ख । के कारण मैंने जिस महावीर को तुम्हारे विरुद्ध लड़ने की अनुमति दी थी उस महात्मा वर्ण का भी स्मरण रखना। हाय ! मुझसी भाग्यहीन कोई नहीं है क्योंकि मैंने कर्ण का परिचय तुम लोगों को पहले ही न दिया; इसलिए. उसके वध की अपराधिनी मैं ही हूँ। जो हो, अब मैं वन जाकर तपस्या और तुम्हारे चचा तथा गान्धारी की सेवा करूंगी। माता कुन्ती की यह बात सुन कर युधिष्ठिर बड़े दुखी हुए और कुछ देर तक भाइयों के साथ सिर मुकाय वे सोचते रहे । फिर माता से बोल :-
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