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पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३५४

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३२२ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड समय तुम लोगों को अपने पास देख कर ऐसा मालूम होता है मानो हम हस्तिनापुर ही में हैं। तुमने हमारे पुत्र की तरह काम किया है । इससे हमें जरा भी शोक नहीं। अब तुम विलम्ब न करो; राज- धानी को शीघ्र लौट जाव । तुम्हें देखने से हमारे हृदय में स्नेह उत्पन्न होता है; इसलिए हमारी तपस्या में विघ्न पड़ता है। अन्धराज धृतराष्ट्र की यह बात सुन कर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया :- पिता ! हम निरपराधी हैं। आप हमें न छोड़िए। हमारे भाई और नौकर हस्तिनापुर लौट जायेंगे । हम यहीं रह कर आपकी और दोनों।माताओं की सेवा करेंगे। तष यशस्विनी गान्धारी ने कहा :- पुत्र ! ऐसी बात मत कहो। तुम कौरवों के वंशधर हो। इसलिए तुम्हे राजधानी ही में रहना चाहिए । अब तक तुमने हम लोगों की बड़ी सेवा की। अब शीघ्र ही अपने नगर लौट जाव । तब महाबाहु सहदेव ने आँखों में आँसू भर युधिष्ठिर से कहा :- राजन् ! हम तो माता को किसी तरह न छोड़ सकेंगे। तुम शीघ्र ही राजधानी को लौट जाव । हम यहीं तपस्या करेंगे । और राजा तथा दोनों माताओं की चरण-सेवा करेंगे। सहदेव की यह बात सुन कर कुन्ती ने बड़े प्यार से उनको हृदय से लगाया और कहा :- बेटा ! तुम हमारी बात मान कर हस्तिनापुर लौट जाव । तुम्हारे स्नेह-बन्धन के कारण हमारी तपस्या धीरे धीरे क्षीण हुई जाती है। हम लोगों के परलोक जाने में अब अधिक देर नहीं है। इसलिए अब तुम राज्य को लौट जाव।। इसके बाद राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र से कहा :--- महाराज ! हम लोग आपकी तपस्या में विन्न नहीं डालना चाहते। इस मनुष्यहीन पृथ्वी को देख कर हम अच्छी तरह समझ गये हैं कि राज्य भोगने की अपेक्षा तपस्या करना ही अधिक अच्छा है। जो हो, जब आप हमें आज्ञा देते हैं तब हम अवश्य ही नगर लौट जायँगे। केवल धर्मानुष्ठान ही के लिए हम राज्य में रहने को राजी होते हैं। अब हम सबको आशीर्वाद दीजिए। एक साथ आप लोगों के फिर दर्शन करना बहुत कठिन जान पड़ता है। तब पाण्डवों ने कुन्ती और गान्धारी को प्रणाम तथा धृतराष्ट्र की बारम्बार प्रदक्षिणा करके उनसे बिदा ली। तदनन्तर महाराज युधिष्ठिर अपने बन्धु-बान्धवों के साथ राजधानी में निविघ्न लौट आये। पाण्डवों के तपोवन से लौटने के दो वर्ष बाद एक दिन तपस्वियों में श्रेष्ठ देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर के पास आये । धर्मराज ने उनका यथोचित सत्कार किया और कुशल-समाचार पूछने के अनन्तर कहा :- भगवन् ! हमने गङ्गा-तट पर रहनेवाले तपस्वियों से सुना है कि हमारे चचा धृतराष्ट्र दिन पर दिन अपनी तपस्या और भी अधिक कठोर करते जाते हैं। इस समय आप उधर ही से आये हैं; यदि आप उन लोगों से मिले हों तो बतलाइए कि दोनों मातायें और अन्धराज धृतराष्ट्र किस तरह अपना समय बिताते हैं। . यह सुनकर देवर्षि नारद ने कहा :- - महाराज ! हम तुम्हारे चचा के वन में गये थे। वहाँ जो कुछ हमने देखा और सुना है वही कहने के लिए हम तुम्हारे पास आये हैं। सुनिए, तपोवन से तुम्हारे लौट श्राने पर वे लोग गङ्गाद्वार