दूसरा लण्ड] परिणाम ३२३ गये और कठोर तपस्या करने लगे। धृतराष्ट्र वायु खाकर, और गान्धारी केवल जल पीकर और बहुत थोड़ा भोजन करके रहने लगी । इस तरह छः महीने बीतने पर अन्धराज ने जंगल की ओर की यात्रा की। सञ्जय धृतराष्ट्र को और तुम्हारी माता कुन्ती गान्धारी को रास्ता बताती और सहारा देती हुई चलीं। इसी समय वन में आग लग गई। वायु जोर से चलने के कारण वह बड़े भयङ्कर रूप से चारों तरफ फैलने लगी। मृगों और साँपों के मुण्ड के मुण्ड उस प्रचण्ड अग्नि में जल कर मर गये और सुअर महा व्याकुल होकर तालाबों में जा घुसे। धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती भोजन न करने के कारण बड़ी ही दुर्बल हो गई थीं । इसलिए वहाँ से किसी तरह भाग न सकी । उन्होंने अपने बचने का कोई उपाय न देखा। तब महात्मा सञ्जय ने घबरा कर कहा :- महाराज ! इस आग में जल कर मरने से आपकी सद्गति न होगी। परन्तु इससे बचने का भी कोई उपाय नहीं देख पड़ता। इससे शीघ्र ही बतलाइए कि क्या करना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा :-हे सञ्जय ! हम लोगों ने जब घर छोड़ दिया है तब जल, वायु या अग्नि के द्वारा तथा भूखे प्यासे रह कर ही हम लोगों का मरना अच्छा है। इसलिए कोई घबराने की बात नहीं । तुम व्यर्थ देर न करो; शीघ्र ही अपनी जान बचाओ। यह कह कर और पूर्व की ओर मुँह करके कौरव-नाथ कुन्ती और गान्धारी के साथ बे-परवाही से बैठ गये । इन्द्रियों को रोकने के कारण उनके शरीर काष्ठ की तरह निश्चेष्ट हो गये। उनकी यह दशा देख कर सञ्जय ने उनकी प्रदक्षिणा की और बड़े कष्ट से उस आग से बच कर वे वन के बाहर आये। महर्षियों से उन्होंने सब हाल कहा और कह कर हिमालय पर्वत पर चले गये। उस समय हम वहाँ मौजूद थे। इससे सब बातें तुमसे कहने के लिए यहाँ आये हैं। आने के समय अन्धराज, गान्धारी और कुन्ती का जला हुआ शरीर हमने देखा था। जब वे लोग अपनी इच्छा से इस आग में जल कर मरे हैं तब उनको अवश्य ही सद्गति मिलेगी। इसमें कुछ सन्देह नहीं । उन लोगों के लिए शोक करना कदापि उचित नहीं । देवर्षि नारद के मुँह से धृतराष्ट्र आदि के परलोक जाने का हाल सुन कर महात्मा पाण्डवों को बड़ा दुःख हुआ । अन्तःपुर में भयङ्कर आर्तनाद होने लगा। नगर-निवासी भी हाहाकार करने लगे। युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई बार बार विलाप करने लगे। जब सब लोगों के शोक का आवेग कुछ कुछ कम हुआ तब युधिष्ठिर ने देवर्षि से कहा :- भगवन् ! इससे बढ़ कर दुःख की बात और क्या हो सकती है कि हम लोगों के जीवित रहते अन्धराज ने, अनाथों की तरह, वन में प्राण त्याग किया। पुत्रहीना माता गान्धारी के लिए हम उतना शोक नहीं करते, किन्तु जिन्होंने यह इतनी बड़ी राज्य-सम्पदा छोड़ कर वनवास किया उन माता कुन्ती को याद करके हमारा हृदय शोक की आग से जला जाता है। हम लोगों के राज्य और पराक्रम को धिक्कार है । हम लोग जीते ही मुर्द की तरह हैं। पाण्डवों को शोकाकुल देख कर नारद ने युधिष्ठिर से कहा :- तुम्हारे चचा ने तपस्या के प्रभाव से मुक्ति पाई है। तुम्हारी माता कुन्ती ने भी गुरु-सेवा के कारण सिद्धि प्राप्त की है । अतएव उनके लिए शोक न करके उनका तर्पण आदि करो। देवर्षि नारद के इस उपदेश के अनुसार धर्मात्मा पाण्डव लोग अन्त:पुर की त्रियों और राज-भक्त पुरवासियों के साथ एक वस्त्र पहन कर भागीरथी के तट पर गये। वहाँ तिलाञ्जलि आदि
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