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१८ मचित्र महाभारत [पहला खण्ड गान्धारी ने ससझा, मूर्खतावश मैने सन्तान का नाश किया। इसमे उसे बड़ा शोक हुश्रा । पर लाचारी थी। अन्त में उसने उस गर्भ को फेंकने की तैयारी की। इसी समय व्यासदेव श्राकर वहाँ उपस्थित हुए। गान्धारी ने उनसे इस घटना को छिपाना उचित न समझा । उसने साफ़ साफ कह दिया कि कन्ती से ईर्ष्या करने ही के कारण मेरे हाथ मे ऐमा अनुचित काम हो गया। सब बातें व्यासदेव से ठीक-ठीक कह कर दु:ख के मारे वह फूट फूट कर रोने लगी। रोते रोते उसने कहा:-- हे देव ! आपही ने मुझे वर दिया था कि मेरे मौ पुत्र होंगे। अतएव आप ही अब मेरी सन्तान की रक्षा कीजिए । गान्धारी का विलाप सुन कर व्यासदेव ने उसे धीरज दिया और बोले : पुत्री ! तुम शोक न करो। समय पूरा होने के पहले ही उत्पन्न हुई तुम्हारी यह सन्तान नष्ट न होगी। जो कुछ मेरे मुंह से निकल गया है वह मिथ्या नहीं हो सकता। मांस के इमी पिण्ड से तुम्हारे एक सौ पुत्र होंगे। यह कह कर व्यासदेव ने आज्ञा दी कि घी से भरे हुए मौ घड़े लाये जायें । फिर उस मांसपिण्ड पर जल छिड़क कर उसके उन्होंने मो टुकड़े किये और एक एक टुकड़े को एक एक घड़े में डाल दिया । सब घड़ों में एक एक टुकड़ा डाल देने पर मालूम हुआ कि भूल से उस मांस-पिण्ड के सौ नहीं, एक सौ एक टुकड़े हो गये थे। इससे एक टुकड़ा बच रहा । उसे देख कर गान्धारी के मन में एक कन्या प्राप्त करने की इच्छा हुई। यह बात मालूम होने पर व्या-देव ने एक और घड़ा मँगवाया और उसमें उस टुकड़े को डाल कर बोले : इन घड़ों को किसी अच्छी जगह रख दा। दा वर्ष बाद इन्हें खालना। उनमे तुम्हें सौ पुत्र और एक कन्या होगी। इसके अनन्तर जिस समय पाण्डु के दूसरे पुत्र भीमसेन का जन्म हुआ उनी समय पहले घड़े से धतराष्ट्र के जेठे पुत्र दुर्योधन उत्पन्न हुए। इस पुत्र के जन्म-समय में अनेक प्रकार के अशकुन हुए। उन अमङ्गल चिह्नों को देख कर राजमन्त्री और गजपुरुप बहुत घबग गये। उन्हें बड़ा डर लगा। चिन्ता से वे व्याकुल हो उठे। बुद्धिमान् विदुर ने कहा : महाराज! इन अमङ्गल-सूचक चिह्नों मे जान पड़ता है कि इस पुत्र के द्वारा राज्य को बड़ी हानि पहुँचेगी । इससे आपको चाहिए कि आप इसका त्याग करवं. मय लोगों की रक्षा करें। किन्तु पुत्र के स्नेह के कारण धृतराष्ट्र ने वैमा न किया। पुत्र किने प्याग नहीं होता? दुर्योधन के जन्म के पीछे दुःशासन, विकणे आदि मौ पुत्र और दुःशला नाम की एक कन्या हुई धृतराष्ट्र के एक और स्त्री थी । उसमे भी एक पुत्र हुया । उसका नाम पड़ा युयुत्सु । उधर बहुत दिन बीत जाने पर पागडु को उस ऋपिकुमार का शाप भूल गया । अपनी दोने त्रियों और देवताओं के बालकों के सदृश रूप-गुणवाले पाँचों पुत्रों सहित वे हिमालय पर्वत पर सुख और शान्ति से आनन्दपूर्वक रहने लगे। एक बार वसन्त-ऋतु की बहार में माद्री को साथ लेकर वन में सैर करने के लिए पाण्डु बाहर निकले । उस समय आम, चम्पा, कचनार, टेसू आदि के वृक्ष फूलों से लदे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। जगह जगह सरोवरों में फूले हुए अनेक प्रकार के कमल और कुमुद अपनी सुगन्ध दूर दूर तक फैला रहे थे । सारा वन बहुत ही शोभायमान हो रहा था । वन के फल, फूल, लता, पत्र आदि की ऐसी अद्भुत सुन्दरता देखने और प्यारी पत्नी माद्री के मङ्ग का सुख लूटने से पाण्डु को परमानन्द हुआ। माद्री के साथ इस तरह बड़े प्रेम से विहार करते ही करते उस ऋषिकुमार के शाप से पाण्डु की अचानक मृत्यु हो गई। पति की यह गति दिख माद्री पर वन सा गिग। पति के प्राणहीन शरीर से लिपट कर