पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/४७

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पहला खण्ड | पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों का बालपन यह समाचार सुन कर सैकड़ों हज़ारों राजकुमार देश-देशान्तरों से आकर द्रोणाचार्य की शिष्यमण्डली में शामिल हुए। वे भी अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखने लगे। इन नये आये हुए लोगों में निषादों के राजा का एक पुत्र भी था। उसका नाम एकलव्य था। परन्तु द्रोण ने उसे शिष्य बनाना अङ्गीकार न किया। उन्होंने मन में कहा, यह जाति का निषाद है। इससे इस शूद्र का क्षत्रियों के कुमारों के साथ शिक्षा पाना उचित नहीं। एकलव्य बेचारे को द्रोणाचार्य के यहाँ से निराश होकर लौट जाना पड़ा। मन में बहुत उदास होकर एकलव्य ने द्रोण को प्रणाम किया और वहाँ से चल दिया। एक और जगह जाकर उसने द्रोणाचाय्य की मूर्ति मिट्टी की बनाई । उस मूर्ति को उसने अपने सामने रक्खा और खूब मन लगा कर धनुर्वेद का अभ्यास आरम्भ किया। श्रद्धा, अभ्यास और मन के लगाव के कारण बाण चलाने में वह बहुत जल्द प्रवीण हो गया। एक बार द्रोण की आज्ञा लेकर सब राजकुमार शिकार खेलने के लिए राजधानी हस्तिनापुर से बाहर निकले । मृगों को पकड़ने के लिए जाल और कुत्ते साथ लिये गये। उनमें से एक कुत्ता इधर उधर घूमता फिरता एकलव्य के स्थान में जा पहुँचा। एकलव्य का शरीर बहुत मैला था। वह उस समय काले मृग का चमड़ा पहने हुए था। उसका ऐसा रूप देख कर वह कुत्ता जोर जोर से भोंकने लगा। इस पर एकलव्य का क्रोध आया। उसने मन में यह भी कहा कि अच्छा हुआ जो यह कुत्ता आ गया। बाणविद्या में मैंने कितना अभ्यास किया है, इसकी जाँच करने का यह अच्छा अवसर है। यह सोच कर एकलव्य ने उस कुत्ते के खुल हुए मुँह में सात बाण मार कर उसका भोंकना एकदम बन्द कर दिया। ___मुंह में वाण भरे हुए वह कुत्ता भागता हुआ राजकुमारों के पास लौट गया । बाण चलाने के उस कौशल को देख कर सब लोगां का बड़ा आश्चर्य हुआ। वे उस बाण चलानेवाले को वन वन ढूँढ़ने 1 में उन्होंने देखा कि एक जगह खड़ा हुआ एकलव्य बराबर बाण-वर्षा कर रहा है । उस मलीनदेह निषाद-पत्र को वे पहचान न सके। तब उन्होंने उसका नाम धाम पूछा। उसने उत्तर दिया: मैं निपादों के स्वामी का पुत्र और द्रोण का शिष्य हूँ। अकेला इस वन में धनुर्वेद सीख रहा हूँ। पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों न हस्तिनापुर लौट कर द्रोण से यह सब हाल कहा। एकान्त में अर्जुन आचार्य से अभिमानपूर्वक बोले : हे गुरु ! आपने केवल हमें श्रेष्ट शिक्षा देना अङ्गीकार किया था, किन्तु आपका शिष्य यह निपाद-पुत्र तो इम विपय में हमसे भी अधिक प्रवीण हो गया। द्रोण ने बहुत साचा विचारा; कुछ निश्चय न कर सके। मामला क्या है, उनकी समझ में न आया। अन्त में साग मंद जानने के लिए अर्जुन को साथ लेकर वे एकलव्य के पास गये। एकलव्य बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था। द्रोणाचार्य के आगमन से वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अपने को धन्य माना । द्रोण से उसने कहा, मैं आपका शिष्य एकलव्य हूँ। उनकी उसने यथोचित पूजा की; उन्हें आसन पर बिठाया और हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़ा हुआ। द्रोण बोले : ह वीर ! यदि तुम सचमुच ही हमें अपना गुरु समझते हो तो तुम्हें गुरुदक्षिणा देना चाहिए । एकलव्य ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया : हे भगवन् ! ऐसी कोई चीज़ नहीं जो गुरु को न दी जा सके । आज्ञा दीजिए आप क्या दक्षिणा माँगते हैं। यह सुन कर द्रोणाचार्य ने अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए एकलव्य से इस तरह ममताहीन वचन कहे : एकलव्य ! तुम अपने दाहिने हाथ का अँगूठा हमें दे डालो। उसी को हम गुरुदक्षिणा समझेंगे। लगे।