पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/६५

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पहली खण्ड धृतराष्ट्र के पुत्रों का पाण्डवों पर अत्याचार युधिष्ठिर की आज्ञा लकर भीमसन बड़े वेग से उस तरफ़ चले जहाँ से उन जलचर पक्षियों का शब्द आ रहा था। कुछ देर मे वे एक तालाब के किनारे जा खड़े हुए। तालाब में साफ पानी भरा था। उसे देख कर वे बहुत प्रसन्न हुए । उसमें स्नान करके उन्होंने जी भर के पानी पिया। इससे उनकी थकावट बहुत कुछ दूर हो गई । तब उन्होंने माता और भाइयों के पीने के लिए अपने अंगौछे में बहुत सा पानी लिया और जल्दी जल्दी उस बरगद के नीचे लौट आये। आकर उन्होंने देखा कि मारे थकावट के सब लोग वहीं जमीन पर गहरी नींद में सो रहे हैं। अपनी प्यारी माता और अपने भाइयों को इस प्रकार अनाथ की तरह जमीन पर पड़े देख भीमसेन को बड़ा दुख हुआ। उनके शोक की सीमा न रही। व मन ही मन कहने लगे: हाय ! हम लोग बड़े ही अभागी हैं। दूध की तरह सफेद और कोमल सेज पर भी जिन्हें अच्छी तरह नींद न आती थी उन्हीं को आज हम जमीन पर सोते देखते हैं। वसुदेव की बहन, कुन्तिराज की पुत्री, महापराक्रमी पाण्डु की रानी और हमारी माता, हाय ! आज ज़मीन पर लोट रही है। जिसका शरीर फूल की तरह कोमल है वह आज इस पथरीली जमीन पर पड़ी है ! इससे अधिक हमारे लिए और क्या दुख होगा ? हा मूर्ख दुर्योधन ! हा दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र-पुत्र ! इस समय तुझ पर देवता प्रसन्न हैं । इससे तू अपनी कामना पूर्ण कर ले । किन्तु हे कुलाङ्गार ! जिस दिन धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा पाऊँगा उसी दिन पुत्र और मन्त्रियों सहित तुझे मैं यमराज के घर भेज कर बदला लिय बिना न रहूँगा। महाबली वृकोदर, भीम, इसी तरह देर तक मन ही मन कहते रहे । क्रोध से उनका हृदय जल उठा। बार बार हाथ मल कर उन्होंने लम्बी साँसें लीं। फिर जो उन्होंने साये हुए भाइयों की तरफ़ देखा और उनके दुःख-क्लेश का विचार किया तो उनका क्रोध कुछ शान्त हो गया। उनके मुँह पर फिर दीनता के चिह्न दिखाई देने लगे । वे सोचने लगे : जान पड़ता है, इस वन के पास ही कोई नगर है। इससे यहाँ पर इस तरह निडर होकर सोना अच्छा नहीं । परन्तु ये सब बहुत थके हुए हैं। इस कारण इन्हें जगाना भी उचित नहीं । अच्छा इन्हें सोने दो। हम अकेले ही जागते हुए इनकी रक्षा करेंगे और देखते रहेंगे कि कोई असाधारण बात तो नहीं होती। अकेले हमारा ही सचेत रहना इस समय बस होगा। इस तरह मन ही मन सोच कर भीमसेन जागते रहे और जो जल सबके पीन को लाये थे उसे सँभाल कर अपने पास रक्खा। इसी जगह के पास शाल का एक बहुत बड़ा वृक्ष था। मेयों की तरह काले रंग का बड़ा ही डरावना एक राक्षस उस पर रहता था। उसका नाम हिडिम्ब था। मनुष्य का मांस उसे बहुत प्यारा था। वही वह खाता था । पर बहुत दिन से नर-मांस उसे न मिला था। इससे वह बड़ा भूखा था। भीम आदि पाण्डव उससे कुछ ही दूर थे। उनके बदन से उस राक्षस को मनुष्य की गन्ध आई। इससे उसकी लार टपकने लगी। उसने अपनी बहन हिडिम्बा को बुला कर कहा : मनुष्य के मांस में दाँत गड़ाने और गरम गरम रक्त पीने का आज बहुत दिनों में अवसर आया है। उस वृक्ष के नीचे के मनुष्यों को मार कर बहुत जल्द उन्हें ले आओ, जिसमें हम दोनों खूब पेट भर मांस खाकर आनन्द से नाच करें। भाई की आज्ञा पाकर हिडिम्बा तुरन्त ही उस बरगद के वृक्ष के नीचे आई। उसने देखा कि भीमसेन जागते हुए पहरा दे रहे हैं और उनकी माता और चारों भाई सो रहे हैं। भीमसेन का रूपलावण्य, यौवन और बलवान् देह देख कर हिडिम्बा उन पर आसक्त हो गई। कहाँ वह उन्हें मारने भाई थी, कहाँ उसके मन में उन्हें अपना पति बनाने की इच्छा हो आई । उसकी यह इच्छा यहाँ तक प्रबल हो उठी कि उसका नर-मांस खाने का लोभ न जाने कहाँ चला गया। उसने अपना राक्षसी रूप बदल डाला। बह एक बड़ी ही सुन्दर स्त्री बन गई । उसके बदन पर अच्छे अच्छे कपड़े और गहने शोभा देने लगे। इस