पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/८५

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का विवाह और राज्य की प्राप्ति बारह वर्ष का वनवास । इससे अर्जुन बड़े चक्कर में आय । अन्त में धर्म को सब से बढ़ कर समझ कर उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ने का फल-भोग करना ही अच्छा समझा। ऐसा निश्चय करके वे अस्त्रागार में पहुँचे और युधिष्ठिर की आज्ञा से धनुष-बाण लेकर ब्राह्मण की सहायता के लिए उन्होने चारों का पीछा किया । जब चोरों को मार और ब्राह्मण की गायें लौटा कर अर्जुन घर लौटे तब सबने उनकी बड़ी प्रशंसा की। इसके बाद गुरुजनों को प्रणाम करके अर्जुन युधिष्ठिर के पास बिदा माँगने गये और बोले : आर्य्य ! जिस समय आप द्रौपदी के साथ अत्रागार में थे उस समय हमने वहाँ जा कर नियम-भंग किया है। इसलिए हमें वनवास के लिए जाने की आज्ञा दीजिए । युधिष्ठिर इस अप्रिय बात को सुन कर, जिसका उन्हें खयाल भी न था, बड़े मन्नाट में आये; उनकी आँखों में आँसू श्रा गये । गद्गद स्वर से उन्होंने कहा : हे भाई ! तुमने ब्राह्मण की मदद करने के लिए हमारे घर में प्रवेश किया था। इसलिए इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है । इस काम में हमारी पूरी सम्मति थी। इससे हम किसी प्रकार अप्रसन्न नहीं हुए। यदि स्त्री के साथ छोटा भाई घर में हो और बड़ा भाई वहाँ जाय, तो ज़रूर अधर्म है। पर स्त्री के साथ बड़ा भाई यदि घर में हो तो छोटे भाई का वहाँ जाना अनुचित नहीं है। इसलिए हे अर्जुन ! तुम हमारी बात माना; वन को न जाव । तुमने ज़रा भी अधर्म का काम नहीं किया। पर अर्जुन ने किसी तरह न माना । उन्होंने कहा :---- हे प्रभो ! तुम सदा यही उपदेश दिया करते हो कि छलपूर्वक धर्म का काम भी न करना चाहिए । इसलिए, इस समय, स्नेह के वश हो कर आप हमें रोक कर हमारा सत्य भंग न करें। ___ यह कह कर कुरुओं के कुल में श्रेष्ठ अर्जुन ने, जेठे भाई की आज्ञा लेकर, बारह वर्ष तक वनवास करने के लिए यात्रा की। जब अर्जुन चलने लगे तब बहुत से ब्राह्मण और संन्यासी भी उनके साथ चलने को तैयार हुए। इन सब लोगों के साथ अर्जुन ने विचित्र जङ्गलों, सरोवरों, नदियों और पुण्यतीथा के दर्शन करते हुए अन्त में गंगा के किनारे एक स्थान पर रहना निश्चित किया । वहाँ जगह जगह पर ब्राह्मणों ने अग्निहोत्र करना प्रारम्भ किया । फूल, मालाओं से अलङ्कत और मन्त्रों से पवित्र अग्नि के और संयम से पवित्रतापूर्वक रहनेवाले जितेन्द्रिय ब्राह्मणों के द्वारा गंगा का किनारा अत्यन्त शोभायमान हुआ । इस प्रकार आश्रम में खूब चहल-पहल रहने लगी। एक दिन अर्जुन स्नान करने के लिए गंगा में उतरे । स्नान के बाद उन्होंने पितृ-तर्पण किया । फिर अग्निहोत्र करने के लिए ज्यों ही वे जल से निकलने लगे त्यों ही नाग-राज की पुत्री उलूपी उनकी सुन्दरता पर मोहित हो गई और उन्हें पानी में खींच कर नागलोक को ले गई । वहाँ जलती हुई अग्नि में होम करके अर्जुन उलूपी से बोले : हे नारी ! इस देश का क्या नाम है ? तुम कौन हो ? और हमको यहाँ किस लिए लाई नाग की लड़की ने कहा :-मैं कौरव्य नामक सर्प की कन्या हूँ। मेरा नाम उलूपी है। आपकी सुन्दरता को देख कर आपके साथ विवाह करने की इच्छा हुई है। इसी लिए आपको अपने पिता के घर ले आई हूँ । इस समय जैसे बने मेरी मनोकामना पूर्ण कीजिए। अर्जुन ने कहा :-हे सुन्दरी ! मैं भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ । पर आज कल फा०९