पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५६

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१४४ सयाथनकरः ॥ सदा विजयी होओ परन्तु ( मा मत्थूस्य मायिन: ) जो निन्दित अन्यायरुप काम करता है उसके लिये पूर्व बस्ड मत हों अर्थात् जबतक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैंतय नष्ट भ्रष्ट होजाता है। महाविद्वानों को विद्यासभाsधिकारीधार्मिक विद्वानों को धर्मसभाsधिकारी प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राजसभा के सभासद् और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण कर्म स्वभावयुक महान् पुरुप हो उसको राजसभा का पतिरूप मान के सब प्रकार से उन्नति करें । तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्क्स सब के हितकारक कार्यों में सम्मति करें ) सर्वहित करने के लिये परतन्न और धर्मयुक्त कामों में अर्थात् जो २ निज के काम हैं उन २ में स्वतन्त्र रहें । पुनउस सभापति के गुण कैसे होने चाहियें-- इन्द्रानिलयमार्कणामग्नेश्च वरुणस्य च । चन्द्रवित्तशयोश्चेव मात्रा निहृत्य शाश्वती॥ १ ॥ | तपयदेयवर्दूष चऋषि च मनांसेि च । नचैन भुवि शक्नोति कश्चिदयभिवीक्षितुम् ॥ २ ॥ सोsग्निवति वायुश्च सो: सोमः स धर्मराद। स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः 7 ३ ॥ मनु० ७ । ४ । ६, ७ ॥ जला

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वह स भेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत् के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्ता वायु के सम मान सत्र के प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारायम पक्षपातरहित न्या- याधीश के समान बनेवाला, सूर्य के समान न्याय धर्म विद्या का प्रकाशक अंध - कार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक, आग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने- ? हारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के साझा दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्य क्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे ॥ १ ॥ जो सूर्यावत् प्रतापी सब के बाहर और भीतर से ? को अपने तेज से तपानेहा जिसको पृथिवी में करही दृष्टि से देखने को कोई भी, समर्थ न हो ॥ २ ॥ और जो अपने से अग्नि, वायु, सूर्यसोमधर्मप्रकाशक, ' , धनवर्द्धक, दुष्टों का बन्धनतोंवह ऐश्वर्यवाला होवे वही सभाध्यक्ष सभश ६ान । के योग्य होने ॥ ३ ॥ सच्चा राजा कौन है?