पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५८

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१४ ६ सत्ययंत्रकाश: ! वही ग्रजा का शासनकत्तों सब प्रज का रक्षक सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागवा है इसीलिये बुद्धिमान् लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं।॥ २ 1ज़ो दण्ड अच्छे प्रकार विचार से धारण किया जाय तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सत्र छोर से राजा का विनाश कर देता है : ३ ॥ बिना दुण्ड के समय व दूषित और सख मर्यादा छिन्न भिन्न हजायें । दुण्ड के यथा- R r बत न होने से सत्र लीग का प्रकोप हाजा॥ ४ ॥ जी एवं रकमंत्र भय दूर पुरुष के समान पाप का नाश करनेहारा दण्ड विचरता है वहां प्रजt मोह को प्राप्त न होके आनन्दित होती है परन्तु जो दुण्ड का चलानेवाला पक्षपातरहित विद्वान् । हो तो ll ५ II जो उस दण्ड का चलानेवाला सत्यवादी विचार के करनेहारा बुद्धि मन् में अर्थ और काम की सिद्धि करने में पण्डित राजा है उसी को उस दण्ड का चलानेहारा विद्वान् लोग कहते हैं ॥ ६ ॥ जो दण्ड को अच्छे प्रकार राजा चला- ता है वह धर्म अर्थ और काम की सिद्धि को बढ़ाता है और जो विषय में लम्पट, टेढ़ा, इंश्यों करनेहारा ह्द्र नीचबुद्धि न्यायाधीश राजा होता है, वह दण्ड से ही। 1 मारा जाता है।७ !। जब दण्ड बड़ा तेजोमय है इसको आविद्वान् अधसोंत्ा धारण

नहीं कर सकता तब बह दण्ड धर्म से रहित राजा ही का नाश कर देता है॥ ८ ! ।

दकि जो आाप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहितविषयों में आासक मृढ़ है वहू न्याय से दण्ड चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सस्ता ॥ ९ ॥ और जो पवित्र आम सत्याचार और सत्पुरुषों का सह्री यथावत् नीतिशास्त्र के अनुकूल चलनेहारा ठ पुरुष के सहाय से युक्त बुद्धमान वी न्यायपी द्वण्ड के चलाने में समर्थ । होता ई है॥ १० । इसलैये' है. सैनापत्र व राज्य च दण्डनेतृत्वमेव च । सर्वलोकाधिपत्य च वेदशास्त्रविदति ॥ १ । दशावरा बा परिपयं धर्म परिकल्पषेत् । यवरा वापि वृत्तस्या में धर्म न विचालये यंत् ॥ २ ॥ विद्य हेतुकस्तक नैतो धर्मपाठक त्रयवतः पन परिपत्स्याशावरा ॥ ३ ॥ ऋग्वेदविद्यजुर्विच सामवेदविदेव च ।

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