पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१८

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धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्य्याश्रम करते हैं उसका नाम “ओ३म्” है ॥ ४ ॥

(प्रशासिता०) जो सब को शिक्षा देनेहारा सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वप्रकाशस्वरूप समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है उनको परमपुरुष जानना चाहिये ॥ ५ ॥ और स्वप्रकाश होने से “अग्नि” विज्ञानस्वरूप होने से “मनु” सब का पालन करने और परमैश्वर्य्यवान् होने से “इन्द्र” सब का जीवनमूल होने से “प्राण” और निरन्तर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम “ब्रह्म” है ॥ ६ ॥ (स ब्रह्मा स विष्णु०) सब जगत् के बनाने से “ब्रह्मा” सर्वत्र व्यापक होने से “विष्णु” दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से “रुद्र” मङ्गलमय और सब का कल्याणकर्ता होने से “शिव” “य: सर्वमश्नुते न क्षरति न विनश्यति तदक्षरम्” “यः स्वयं राजते स स्वराट्” “योऽग्निरिव कालः कलयिता प्रलयकर्त्ता व कालाग्निरीश्वरः” (अक्षर ) जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी ( स्वराट् ) स्वयं प्रकाशस्वरूप और (कालाग्नि॰) प्रलय में सब का काल और कल का भी काल है इसलिये परमेश्वर का नाम कालाग्नि है ॥७॥ (इन्द्रं मित्रं) जो एक आद्वितीय सत्य ब्रह्म वस्तु है उसी के इन्द्रादि सब नाम हैं। “द्युषु शुद्धेषु पदार्थेषु भवो दिव्यः”, “शोभनानि पर्णानि पालनानि पूर्णानि कर्माणि वा यस्य सः”, “यो गुर्वात्मा स गरुत्मान्”, “यो मातरिश्वा वायुरिव बलवान् स मातरिश्वा” (दिव्य) जो प्रकृत्यादि दिव्य पदार्थों में व्याप्त (सुपर्ण) जिसके उत्तम पालन और पूर्ण कर्म हैं (गरुत्मान्) जिसका आत्मा अर्थात् स्वरूप महान् है (मातरिश्वा) जो वायु के समान अनन्त बलवान् है इसलिए परमात्मा के “दिव्य”, “सुपर्ण”, “गरुत्मान्” और “मातरिश्वा” ये नाम हैं। शेष नामों का अर्थ आगे लिखेंगे ॥८॥ (भूमिरसि॰) “भवन्ति भूतानि यस्यां सा भूमिः” जिसमें सब भूत प्राणी होते हैं, इसलिए ईश्वर का नाम “भूमि” है। शेष नामों का अर्थ आगे लिखेंगे ॥ ९ ॥ (इन्द्रो मह्ना॰) इस मन्त्र में इन्द्र परमेश्वर ही का नाम है, इसलिए यह प्रमाण लिखा है ॥ १० ॥ (प्राणाय) जैसे प्राण के वश सब शरीर और इन्द्रियां होती हैं वैसे परमेश्वर के वश में सब जगत् रहता है ॥ ११ ॥ इत्यादि प्रमाणों के ठीक-ठीक अर्थों के जानने से इन नामों करके परमेश्वर ही का ग्रहण होता है। क्योंकि “ओ३म्” और अग्न्यादि नामों के मुख्य अर्थ से परमेश्वर ही का ग्रहण होता है। जैसा कि व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण, सूत्रदि ऋषि मुनियों के व्याख्यानों से परमेश्वर का ग्रहण देखने में आता है, वैसा ग्रहण करना सब को योग्य है, परन्तु