पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२१४

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सत्यार्थीप्रकाता: }। इच्छादूषप्रयतसुखदुखज्ञानान्यात्मनो लिUमिति 75 । न्यायद० अ० १। आ० १। सू० १० ॥ प्रणपाननिमेषोन्मेषमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दु:खेच्छाइौ प्रयत्नाश्चारमनो लिहानि ॥ वैशेषिक द९ अ० ३ । आ० २ । सू२ ४ ॥ ( इच्छा ) पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाष ( ट्रेष ) दुःखादि की अनिच्छा खैर ( प्रयत्न ) पुरुषार्थ बल ( सुख ) आनन्द ( दुःख ) विलाप अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में ( प्राण ) प्राण को बाहर से भीतर को लेना ( अपान ) प्राणवायु को बाहर निकालना ( निमेष ) आंख को मीचना ! 3 ( उन्मेष ) आंख को खत ना ( मन ) निश्चय स्मरण और अद्भर करना ( गति ) चल ना ( इन्द्रिय ) सब इन्द्रियों का चलाना (अन्तरविकार ) भिन्न २ सुधा, तुषा, इपशोकादियुक्त होना ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है, जबतक आत्मा हेइ में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ चला जाता है तब ये गुण

  • घर में नहीं रहते जिस होने से जो हों और न होने से न हों वे गुण उसी के होते हैं।

) जैसे दीप और सूर्ययोदि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है। ! वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है प्रश्न ) परमेश्वर त्रिकालद है इससे भविष्य की बातें जानता है वह जैसा : निश्चय करेगा 1 जीब वैसाही करेगा इससे जीव स्वतन्त्र नहीं और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चय किया है वैसा ही जीव करता है ।( उत्तर ) ईश्वर को त्रिकालदृश क ना मूर्खता का काम है, क्योंकि जो तोकर न रहै वह भूतकाल और न होके होवे बहै भविष्यकाल कहता है क्या ' ईश्वर को कोई ज्ञा।न ढोके नहीं रहता तथा न ही के होता है इसलिये परमेश्वर का ज्ञान संसदा एक रस अखण्डित वर्तमन रहता है भूत भविष्यत्र जीवों के लिये हैं, ६t' जीवों के कर्म की अपेक्षा से निकालना ईश्वर में है स्वतः नहीं । जै मा स्वतन्त्रता से जब करता है वैसा ही सर्वेक्षता से घर जानता है और ? जैसा श्र जानता है वैसी जय करता है अर्थात् भूत भविष्य वर्तमान के ; - ।