पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२४१

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अट्रमसमुल्लास: । १३१ ' अषधयः । ऑषांधोंनए । अन्नाद्रुतः 1 रतलः पुरुषः स वा एय पुरुषोन्नर समयः 7 तैत्तिरीयोपनि० ब्रह्मानन्दव७ अनु०१ ॥ उस परमवर ऑोर प्रशांत से आकाश अवकाश अथत जस कारणरूप द्रव्य - ९ सवत्र फैल रहा था उस का इकट्ठा करन से अवकाश उत्पन्नसा होता वास्तव में आकाश की पत्त नहीं होती क्योंकेि बिना आकाश क प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सके आकाश के पश्चात् वायु, वायु के पश्चात अग्नि, आयरिन के पश्चात ज्ञ न्यु, जल के पश्वन प्रथियो, थिवी से औषधि, छोषधियों से अन्न, अन्न वीर्य वारों से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है यहां आकाशादि क्रम से और छान्दोग्य । में अन्य ।दि, ऐतरेय में जलादि क्रम से दृष्ट , वेदों में कहीं पुरुष कीं हिरण्यगर्भ आ।दि से, मीमांसा में कर्म, वैशेपिक में कात, न्याय में परम, योग में पुरुषार्थ

सव्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है अब किस को
गा और किस को झूठा मानें ? ( उत्तर ) इस में सब बढ

सच कोई झूठ नहीं मृठा है विपरीत है, क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगन् का जो समझता ' उपाम कारण है जब महाप्रलय होता है उस के पश्चात् आकाशादि क्रम अथोंत ! ' जय प्रकाश और वायु का प्रलय नहीं होता और अरन्यादि का होता है अग्न्यादि 1 और जब विद्युत् अग्नि का भी नाश नहीं होता तब जल क्रम से सुष्टि क्रम स होती है अर्थात जिस प्रलय २ तक प्रलय होता है वहा २ से सृष्टि की 1 २ से जहां पत्ति होती है पुरूष और हिरण्यभदि प्रथमसमुल्लास में लिख भी आये हैं वे सब नाम परमेश्वर के हैं परन्तु विरोध उस को कहते हैं कि एक कार्य में एक ही ? विषय पर विरुद्ध वाद होवे छः शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है । मीमांसा में ‘ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिस के बनाने में कर्म चेष्ठा न की जाय7 वैशेषिक से ‘समय न लगे बिना बने ही नहीं" न्याय मे ‘‘उपादान ' कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता" योग में ‘विद्या, ज्ञान, विचार न } तो नहीं बन सकता’ मेल होने से नहीं बन , किया जाय सांख्य में ‘*तत्वों का न सकता’ और वेदान्त में बनानेवाला न बनाये तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न न हो सके’ इसलिये सृष्टि छ कारणों से बनती है उन छ: कारणों की व्याख्या ए २ की एक २ शान में हैइसलिये उन में विरोध कुछ भी नहीं जैसे छ. पुरुष मित के एक छcपर उठाकर भिचिों पर घरें वैसा ही सष्टिरूप कार्य की व्याख्या ।