पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२६४

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२५४ सत्यप्रकाश: ! - ए - - - - - - रसार न रहेगा और डु ख के अनुभव के बिना मुख कुछ भी नही हो सता जैसे ? कटु न हो तो मधुर क्या जो सधुर न हो तो कई क्या कहावे ? क्योंकि एक व। के एक रस के बि द्र होने से दोनों की परीक्षा होती है जैसे कोई मनुष्य मठा मधुर ही खाता पीता जय उसको वैसा सुख नहीं होता जैसे जैसा सत्र प्रकार के रहे ! के भोगनेवाले को होता है और जो ईश्वर अन्तवाले कर्मों का आनन्त फल देने ता उसका न्याय नष्ट हो जाय, जो जितना भार उठास के उत ना उस पर धरना बुद्धिमान का काम है जैसे एक मन भर उठानेवाले के शिर पर दश मन धरने से भार धरनेवाले की । निन्दा होती है वैसे अल्प अस्प सार्यवाले जीव पर अनन्त खुख का भार धरना ईश्वर के लिये ठीक नहीं और जो परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है तो जिस कारण से उत्पन्न होते हैं वह चुक जायगा क्योंकि व। कितना वड नका हो प रन्तु जिसमे व्यय है और आाय नहीं उसका कभी न कभी दिवाला निकल ही | जाता है इसलिये यही व्यवस्था ठीक है कि मुक्कि में जाना वहां से पुन आाना ही अच्छा है । या थोड़े से कारगार से जन्म कारागार ७डव ले प्राथति अथवा फांसी को कोई अच्छा मानता है ? जब वहा से आना ही न हो तो जन्म कारागार } से इतना ही अन्तर है कि वहां जूरी नहीं करनी पड़ती और वर्षा में लय हाना समुद्र में इन मरना है A ( प्रश्न ) जैसे परमेश्वर निस्यमुक्त र्ण सुखी है वैसे ि जीव भी नित्यमुक्त और सुखी रहेगा तो कोई भी दोष न अ‘वेगा । ( स्तर ) ' 'परमेश्वर अनन्त, स्वरूपसामथ्ये, गुणकमें, स्वभाववाला है इसलिये वह कभी आविद्या और दु.ख वन्वयन म नहीं गिर सकता जीव मक होकंर भी शुद्धन, अल्पज्ञ और परिसित गुण कर्म स्वभाववाला रहता है परमेश्वर के सदृश कभी नहीं होता। ( श्न न ) जन ऐसी तो मुक्ति भी जन्म मरण के सदृश है इसलिये श्रम करना व्यर्थ है । ( उत्तर ) मुक्ति जन्म मरण के सश नई क्योंकि जबतक 1 ३६००० छत्तीस सहस्र } बार उत्पत्ति और प्रतय का जितना समय होना है उतने समय पर्यन्त जीवन को मुक्ति के आनन्द में रहना टु ख का न हत क्या छोटी बात है ? जब आज खाते पीते हो कल भूख लगनेवाली है पुनः उपाय क्यों करते हो ? जब झुधा, तृषा झुत्र वनराज्य . प्रतिष्ठा, बी. सदान अादि के लिये उपाय करना आवश्यक है तो मक्ति कiलय सच न करने १ जैसे मरन' अवश्य त' भी जीवन है का उपाय किया जाता है, वैसे ही सक्ति f rटर जन्म में माना है तथापि उसका उपाय करना अत्यावश्यक है ( के न ) सुकि ! इसका '